पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/१९९

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" तो उसे कर्तव्यनिष्ठ पुत्र ही कहा जाएगा । सम्भव है , उसने कर्तव्यवश जो कुछ किया , उससे वह दुःखी भी हो । ” " बहन , प्रेम के आवेश में मनुष्य बहुत - सी बातें नहीं देख सकता । " " परन्तु स्त्री को पति की अविश्वासिनी होने पर क्या दण्ड दिया ही न जाए ? " “ यह तो उसके व्यक्तित्व और चरित्र पर निर्भर है । " " तो रक्षेन्द्र समझते हैं कि उसने अपराध किया है ? " " हो सकता है ; पर तू क्या समझती है कि तुम दोनों एक - दूसरे के पूरक हो ? " " हम दोनों जीवन -साथी हैं , मैं उसे वरण करके प्रसन्न हूं । " “ दुर्भाग्य है, दुःखद है ! " " तो अब मैं चली, अभिवादन करती हूं भाई! " “ आह, यह दुस्सह है, बहन ! " " अभिवादन करती हूं , भाभी! ” “किन्तु तू हमें छोड़कर जा रही है? " " तुम्हारा आशीर्वाद लेकर । " " फिर कब आएगी , सूर्पनखा? " " कभी नहीं। " " अस्तु ! जो मणि , रत्न , स्वर्ण तुझे चाहिए, मणिमहालय से ले जा और कुछ सैनिक भी । " “ नहीं ले जा सकती । " “ क्यों ? " “विद्युज्जिह्व मेरे लिए यथेष्ट है । " " वह तो स्वयं विपन्न है। " “फिर भी मैं रक्षेन्द्र का दहेज नहीं स्वीकार कर सकती । " " क्या मेरे अनुरोध से भी नहीं , सूर्पनखा ? " " नहीं , जब तक रक्षेन्द्र मेरे पति को अपना बहनोई स्वीकार कर मणिमहालय में उसका स्वागत न करे । " “ यह तो कभी नहीं होने का । " " तो भाई, विदा ! " “ बहन , क्या यह यथेष्ट नहीं कि तू उससे ब्याह कर रही है? मुझे भी उसे स्नेह करना होगा ? " “ और आदर भी । तुम जब तक उसे बहनोई और निरपराध कर्तव्यनिष्ठ पुत्र नहीं समझते , हमारी राह जुदी है - तुम्हारी जुदी। ” । " ओह सूर्पनखा, मुझे उससे युद्ध करना ही पड़ेगा , यह मेरी कुलप्रतिष्ठा का प्रश्न है। " " तो भाई हम सब कालिकेय लोग अश्मपुरी में तेरा स्वागत करेंगे । "