58. यमजिह्ना लंका में यमजिह्वा नाम की एक कुट्टिनी रहती थी । वह वृद्धा राक्षसी सर्वहारी विद्या में बड़ी कुशल थी । वह कुट्टिनी लंका में प्रसिद्ध थी । लंका की सब वेश्याओं की वह नानी थी । उस राक्षसी कुट्टिनी का रूप भी बड़ा अद्भुत था । उसकी ठोढ़ी मोटी थी , नाक चपटी और टेढ़ी थी । दांत बड़े-बड़े बाहर को निकले हुए और छीदे थे। चमड़े के खाली थैले के समान लटके हुए स्तन , कण्ठ की उभरी हुई नसें , उसके कद - रूप को व्यक्त कर रही थीं । धुला हुआ धवल वस्त्र पहने , विविध वशीकरण औषधियों के ताबीजों और रत्नों की माला पहने, उंगली में स्वर्ण की मुद्रिका और कटि में स्वर्णमेखला धारण किए आसन्दी पर बैठी वह कुट्टिनी यमजिह्वा अपनी पुत्री मदालसा को वेश्याधर्म सिखा रही थी - “ देख , तेरे ये चिकुर - भर ऐसे हैं जैसे भस्म होते हुए कामदेव का धूम्र ही वर्तिकाकार हो गया हो । कामीजनों को किंकर बनाने को यही यथेष्ट हैं । फिर ये मन्दोल्लसित भ्रूयुगल और मन्द स्मित अधर धीरों को भी अधीर करनेवाले हैं । कामीजन तेरे इस स्वर्णकान्त शरीर की कान्ति सुनकर ही विह्वल हो सकते हैं , देखने की तो बात ही क्या है, फिर तेरी यह रुचिर दन्तपंक्ति , अजिर विद्यद्दाम - कान्ति को मात करती है और पुरुषों के मन में मन्मथदाह वेदना उत्पन्न करती है । तेरा आलाप कोकिल की कुहुक को मात करता है और तेरे इन मकर - केतन -निकेतन युगल स्तन- कान्तार में स्मर तस्कर का वास है । तेरे ये मृणाल परिकोमल युगल बाहु भला किसे मदन - संकट में नहीं डाल सकते ! तेरा यह मनोहर मध्य देश क्षीण तो है, परन्तु शरीरधारियों की अभिलाषा , चिन्ता , स्मृति , गुण - कथन , उद्वेग , संलाप, उन्माद और जड़ता की मन्मथ- दशाओं को प्राप्त कराता है। संकल्पज चापयष्टि- गुण शोभा - धारिणी ये तेरी रोम - राजि तरुणों को कामशर -पीड़ित करती है । ये तेरे सुवर्ण शिलातल , रमणीय पृथुल जघन यतियों की समाधि का नाश करने वाले हैं । ऐसे ही मनोहारी तेरे रम्भास्तम्भ - से शीतल ऊरु- युग मदन -ज्वर - शान्ति की महौषध हैं । कनकलता के समान यौवन - कल्प - तरु तेरे ये सुडौल जंघायुगल भला किसे कामफल न देंगे ? अनार और स्थल - कमलिनी के रंग को फीका करनेवाले तेरे चरण - युगल भला किसके मन को अलंकृत नहीं करते ? अरी पुत्री, तेरे शरीर की इस शोभा का मूल्य पृथ्वी पर कहां है? परन्तु ध्यान से सुन ! धन से सबकी प्रतिष्ठा होती है वेश्याओं की विशेष करके । परन्तु प्रेम करने से धन नहीं मिल सकता । इससे वेश्या की बेटी को प्रेम के विष से दूर ही रहना चाहिए। सन्ध्या के अन्धकार के समान वेश्याओं का अनुराग दोष - रूपी अन्धकार को बढ़ाने वाला होता है। इससे , वेश्या - पुत्री को प्रेम का चतुराई से अभिनय करना चाहिए - प्रेम नहीं करना चाहिए । वेश्या को चाहिए कि पुरुष के साथ अनुराग प्रकट कर उससे सब धन ले ले , फिर धन लेकर उसे निकाल दे और जो उसे फिर धन मिले ; तो उसे भी स्वीकार कर ले । मुनि के समान जो वेश्या बालक में , युवा में , वृद्ध में , रूपवान् में तथा कुरूप में समभाव रखती है, उसी को
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