राजि के नैसर्गिक आकर्षण से सज्जित किया है। उसके सकम्प अधर , अधीर ईक्षण- युगल , बंकिम भ्रू भंग तो उस तन्वंगी को भीरु ही व्यक्त करते हैं । पर फिर भी उसने राक्षस - भटों से भरी - पूरी इस समूची लंका को जीत लिया है । उसके पुष्ट नितम्बों पर भारी स्वर्ण -रशना निर्दय आघात कर रही है और पीन कुच- युग्म मणिहार के आघात को निर्द्वन्द्व सह रहे हैं । अपनी - अपनी सामर्थ्य ही तो है । परन्तु यह जो मृणालमृदु भुजवल्लरियों में वजनी स्वर्ण वलय पहना दिए हैं यह तो अनर्थ ही है। " इस प्रकार जब दोनों मित्र मदालसा का रूप - लावण्य वर्णन कर रहे थे, तभी यमजिह्वा की भेजी हुई दूती ने आकर राजपुत्र को प्रणाम कर पुष्पताम्बूल - पटल का उपायन राजपुत्र के सम्मुख धरा और विनम्र मनभावन वचन बोली - “प्रियदर्शी कुमार, अब मैं तुमसे क्या कहूं ? वह तो चन्द्रमा को अंक में भरना चाहती है, आकण्ठ अमृत - पान करना चाहती है और मलय- पल्लव पर शयन करके अपना दाह शान्त करना चाहती है अथवा विष्णु की कौस्तुभ मणि को हृदय में धारण करना चाहती है। भला उसकी स्पर्द्धा तो देखो । कहां हम पापिनी अस्पृश्या वेश्या जाति , और कहां आप जैसे गुण - समुद्र उदार अन्तःकरण वाले राजपुत्र ! भला हम हीन - कुल कैसे कुलवधू की प्रतिष्ठा को प्राप्त हो सकती हैं ? पर कहूं क्या यह सब उस धिक्कृत अनंग का दुष्प्रभाव है, वह विवेकी ऋषिजनों को भी विवेकहीन कर देता है, फिर युक्तायुक्त का विचार भला वे कैसे कर सकते ? सो यही तो मन्मथ की रागरज्जु है। उसकी उद्वेगावस्था का वर्णन मैं कैसे करूं ? वह दूसरे का मन हरती है, पर स्वयं विमन रहती है । नागरों का वह मनोरंजन करती है, पर स्वयं उदासीन रहती है । हे कुमार , तेरे बिना वह ऐसी उद्विग्न हो रही है कि क्या कहूं । अपने विचित्र आचरण से वह कामीजनों के मन को मोह लेती है, परन्तु उनके सेवा - सत्कार - दान से वह प्रसन्न नहीं होती । कुमार, वह तो तेरे ही प्रेम में दीवानी हो रही है। परन्तु वह प्रेम की भोरी प्रेम का नाम ही जानती है- प्रेम के तत्त्व को नहीं पहचानती ; अभी उसका अनुभव ही क्या है! अल्हड़ है । रतिवार्ता से वह कंटकित हो जाती है , रतिसुख की बात तो उसने अभी सुनी ही सुनी है । वह उसका अपना अनुभूत नहीं है । इस प्रकार यह प्रेम - मूर्ति अभी परोक्ष- मन्मथा है । अभी वह मदन - रुजा से अनभिज्ञ है और उस अनभिज्ञ पर पापात्मा , दग्ध मनोज ने कुसुमास्त्र से , तुझसे रहित देख , आक्रमण किया है। अब वह बाला मन में तेरी ही मूर्ति रखकर आते जाते , आगे-पीछे, प्रसन्न और क्रुद्ध तेरा ही ध्यान करती रहती है। तुझे ही नाना अवस्थाओं में , नाना भावों में देखती है। ऐसी वह उत्कंठित नायिका है। हे राजकुमार , तू कान्त है, हृद्य है , रच्य है, सुगम है, सुखद है, मनोहर है , रमण है , इष्ट है , स्वामी है , दयिता का प्राणदाता , केलिकरण -निपुण है। सो हे राजपुत्र, तू उस प्रिया के निकट चल , अब झूठ - मूठ का विलम्ब क्यों ? अरे , वह दर्पण में अपना मुख भी नहीं देखती, न चन्द्र - दर्शन करती है, इससे उसे अनुताप होता है। जब सोती है तो अपनी मृणाल - भुजाओं को इधर - उधर पटकती रहती है । वह प्रकट उदासीन है, पर भीतर से अनुरक्त है । मैं कहती हूं, अरी मूर्खा, वही तो तू है । वही यह विदग्ध जन - मण्डित पुरी लंका है, वही कुसमायुध है, फिर यह नया विरह- संताप तुझे कैसे उत्पन्न हुआ ? उस विरह - पीड़िता के कपोल पाण्डुर होकर और भी मनोहारी हो गए हैं , सो इसमें आश्चर्य क्या ? मन्मथ-विकार तो सहज सौन्दर्य को निखारता ही है । नये कमल पत्रों की शय्या पर उसका कृश और दुर्निरीक्ष्य पाण्डु शरीर ऐसा शोभायमान हो रहा है
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