धक्का खाकर गिरने से तरुणी को आघात लगा । उसका शृंगार खण्डित हो गया । उसने सर्पिणी की भांति चपेट खाकर उठते हुए वेग से तरुण के वक्ष पर पदाघात किया । पदाघात खाकर तरुण लुढ़कता हुआ भूमि पर गिर गया । उसके उठने से प्रथम ही तरुणी ने फिर पदाघात किया फिर किया फिर किया । तरुण का सारा शरीर धूल में भर गया । उसके मुख से खून झरने लगा। इससे तनिक भी विचलित न होकर तरुणी ने भुजंगिनी की भांति फूत्कार करते हुए कहा - “ दैत्यकुलपति की कुमारी पर मर्यादा बांधने वाला तू होता कौन है रे अधम ? ” पदाघात के लिए फिर उसने चरण उठाए । तरुण उछलकर एक ओर खड़ा हो गया । मुख का रक्त पोंछकर उसने कहा - " तेरे साथ मैंने रमण किया है - अब तेरा वध नहीं करूंगा। पर तू मेरी है -केवल मेरी। स्पर्श तो दूर , अब तू किसी पुरुष का ध्यान भी नहीं कर सकती । ” । - "रमण किया है तो रमण की भांति बात कर, मूर्खता न कर। मुझे भी तेरा विग्रह स्वीकार नहीं है, मैं तुझ पर प्रसन्न हूं। " " तो मांग ले । " " क्या ? " “ जो तुझे चाहिए। " “ मुझे देगा तू ? वह ज़ोर से अट्टहास कर उठी । " दूंगा , मांग ले । ” तरुण ने आवेश में कहा। " इस मरकत-मेखला पर इतराता है तू ! ” तरुणी ने उसकी कमर में बंधी महार्घ मरकतमणि की मेखला को हाथ से छूकर कहा । " तो यही ले । " “धिग्विपन्न , तू दाता है कि याचक ? " " तेरे प्यार का याचक हूँ । ” " तो याचक ही रह । दाता का दम्भ न कर। " उसने आगे बढ़कर तरुण की कमर में बांह डाल दी और हंसकर कहा - “ आ चल , ग्राम चल , एक भाण्ड मद्य पी आ । " “ ग्राम आऊंगा, पर मद्य पीने नहीं , तुझे हरण करने । " “ यह कैसी बात ? ” “ यह मेरी संस्कृति है-रक्ष - संस्कृति । कुमारी का हरण हमारे लिए वैध है- हरण की हुई कुमारियां हमारी अनुबंधित होती हैं। " “ और तू मुझे अनुबन्धित करेगा? तेरा साहस तो कम नहीं है रे, रमण। " " मैं रमण नहीं, रावण हूं , पौलस्त्य वैश्रवण रावण। भूलना नहीं यह नाम । " वह तेज़ी से एक ओर को चल दिया । तरुणी अकेली उस विजन वन में खड़ी, उसे अनिमेष देखती रही । अन्धकार उपत्यका को अपने अंक में समेट रहा था ।
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