आवेशित - सा हो सान्ध्य - वनश्री - सी उस कमनीय कामिनी को अपनी बलिष्ठ बाहओं में अधर उठाकर वक्ष में समेट लिया और उसके प्रत्येक अंग के अगणित चुम्बन ले डाले । आनन्दविभोर हो रमणी ने अपनी भुजवल्लरी तरुण के कण्ठ में लपेट शत - सहस्र प्रतिचुम्बन लिए। वह जैसे तरुण के अंग -प्रत्यंग में सम्पूर्ण धंस गई। जगत् जैसे खो गया । अस्तंगत सूर्य की रक्तिम रश्मियां वनश्री को रंजित करने लगीं । तरुण ने धीरे से रमणी को शिलाखण्ड पर बैठाकर अधोवस्त्र दे नीवी बन्धन किया । स्वयं कटिबन्ध पहना मृगाजिन धारण किया , फिर उसके लाक्षारंजित चरणयुगल गोद में लेकर कच्छप चर्म निर्मित उपानत् चरणों में डाल चर्मरज्जु बांधने लगा । तरुणी ने चरण - नख का तरुण के वक्ष पर आघात करके कहा “ कमनीय है तू रमण । " " सच ? " “ सच, ऐसा और नहीं देखा । " “ और भी देखे हैं तूने ? ” " बहुत । " “कितने । " “ मैंने गिने तो नहीं। " " इतने ही से यौवन में ? " "मुझे इसमें अभिरुचि है। " " काहे में ? " “नित नए यौवनों के आस्वादन में । " “ पर अब तो तू मेरी है ? " “वाह, ऐसा भी कभी होता है? मैं दैत्यकन्या हूँ, दैत्यबाला की यह मर्यादा नहीं है । " " कैसी मर्यादा ? ” “ जहां मेरा मन होगा , रमण करूंगी। " " और मैं ? " " तू कमनीय है, रमणीय है, तेरा मातृकुल और पितृकुल वरिष्ठ है, तेरा सहवास सुखकर है, तू भी आ जब जी चाहे । " “मैं तुझे प्यार करता हूं। " " प्यार क्या होता है ? " “ जो प्राणों में प्राणों का विलय करता है। " " तो तू प्यार कर, अनुमति देती हूं। किन्तू तू ही पहला पुरुष नहीं है, तुझसे पहले बहुत आ चुके हैं , तू ही अन्तिम नहीं है, और अनेक आएंगे । " तरुण के नेत्रों से अग्निस्फुलिंग निकलने लगे । क्रोध से उसके नथुने फूल गए। उसने तरुणी के चरण गोद से गिराकर उसे ज़ोर से शिलाखण्ड पर धकेल दिया और खड़े होकर कहा - “ नहीं, अब और नहीं आएंगे। अब जो तुझे छुएगा उसी के साथ तेरा भी मैं तत्क्षण वध करूंगा । मेरी यह मर्यादा है कि एक स्त्री एक ही पुरुष की अनुबन्धित हो । "
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