भस्मान्तम् शरीरम्। ” " परन्त चितारोहण राक्षसों की भी कुल -मर्यादा है और दानवों की भी । फिर मैं तो प्रिय के बिना नहीं रह सकती। जब मैंने उसके लिए तुम रक्षेन्द्र को और लंका के वैभव को भी त्याग दिया , तब तूने क्या यह नहीं जाना कि मैंने उसकी अपेक्षा विश्व को भी तुच्छ मान लिया है ? " “ मैंने जान लिया बहन , इसी से तुझे रोका नहीं। पर तूने भी तो जान लिया था कि मुझे आना होगा। तूने मुझे अश्मपुरी में आमन्त्रित किया था । अब जिसका मुझे भय था , वही हो गया । अब तू भी धर्म का अनुसरण कर " उदीख़नार्यभिजीवलोकं गतासुमेतमुपशेष एहि ? " " परन्तु अजं ददातो न वियोषतः। " “ नहि , नहि , जीवन्तप्राणसमूहमभिलक्ष्य आगच्छ ! " रावण ने आगे बढ़कर प्रिय बहन का हाथ पकड़ लिया , कुम्भकर्ण ने उसे अपनी प्रलम्ब बाहुओं में उठा लिया । सूर्पनखा ने रोते हुए कहा - “ तो भाई, मैं कालिकेयों को नहीं छोड़ सकती । ” __ “ ठीक है। जा तू अपने सब कालिकेयों के साथ दण्डकारण्य में रह । दण्डकारण्य मैंने तुझे दिया बहन , तू वहां रह चुकी है, वह प्रदेश तुझे प्रिय है। अब से तू ही वहां की स्वामिनी है, पर कालिकेय भी सब राक्षस- धर्म ग्रहण करें । " " कालिकेय राक्षस - धर्म स्वीकार करेंगे। " “मैं खर को आदेश दे दूंगा कि दण्डकारण्य की स्वामिनी सूर्पनखा है, वह सूर्पनखा का अनुगत होकर रहे । " सूर्पनखा ने स्वीकार किया । विद्युज्जिह्व की चिता में अग्नि दी गई। रावण ने मन्त्र पढ़ा - सूर्य चक्षुर्गच्छतु वातमात्मा द्यां च गच्छ पृथिवीं च धर्मणा। आपो वा गच्छ यदि तत्र ते हितमोषधीषु प्रतितिष्ठा शरीरैः। ये एतस्य पथो गोप्तारस्तेभ्यः स्वाहा । ये एतस्य पथो अभिरक्षितारस्तेभयः स्वाहा । रावण ने प्रथम घृत की , फिर दूध की धार से चिता को सींचा। पीछे सब राक्षसों ने , कालिकेयों ने भांति - भांति से पशुओं का आखेट करके चिता को बलि दी ।
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