पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

60 . वशिष्ठ -विश्वामित्र इस समय आर्यों के राज्य गंगा और यमुना की घाटियों को पारकर सोन महानद के तटों को छू रहे थे। दक्षिण में नर्मदा के किनारे तक अनेक समृद्ध राज्य स्थापित हो चुके थे। सरस्वती और दृषद्वती की मध्यभूमि -जिसे आज - कल सरहिन्द का इलाका कहते हैं आर्यावर्त की केन्द्रभूमि थी । अनेक चक्रवर्ती राज्यों की भांति प्रभावशाली ऋषियों के अनेक आश्रम भी यहां स्थापित थे , जिनमें वशिष्ठ , विश्वामित्र , जमदग्नि , गौतम और कण्व के आश्रम बहुत प्रसिद्ध थे। वे निरन्तर असुरों, नागों, मरुतों , और दस्युओं को पीछेधकेलते हुए अपनी राजश्री की वृद्धि करते जा रहे थे । परन्तु इस समय आर्यावर्त में दो व्यक्ति ऐसे थे, जिनका माहात्म्य बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजाओं से भी अधिक प्रभावशाली था । इनमें एक थे वशिष्ठ और दूसरे थे विश्वामित्र । वशिष्ठ का मैत्रावरुण नाम भी प्रसिद्ध था । इनका जन्म देवभूमि इलावर्त में हुआ था तथा इनकी माता उर्वशी उन दिनों वरुण और सूर्य, दोनों ही की सेवा करती थीं , इसलिए यह निर्णय नहीं हो सकता था कि वह सूर्य के औरस हैं या वरुण के । इसलिए उन्हें मैत्रावरुण सूर्य और वरुण का पुत्र कहते थे । वरुण के सभी पुत्र ऋषि हए। उन्होंने राज सत्ता स्थापित नहीं की । वशिष्ठ भी ऋषि हुए, परन्तु इलावर्त में उनका एक प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया । उसका नाम नारद था । वशिष्ठ ने अग्निहोत्र की स्थापना की और यज्ञ की प्रतिष्ठा की । शीघ्र ही वे याजक प्रसिद्ध हो गए , परन्तु नारद ने उसकी खूब खिल्ली उड़ाई। वशिष्ठ की यज्ञ -विधि स्वीकार नहीं की । उन्होंने वामदेव्य गान किया । इसके बाद दोनों का परस्पर संघर्ष बढ़ चला। वशिष्ठ जो भी पूजन -विधि स्थापित करते , नारद उसके विपरीत दूसरी विधि कहते । ऐसा करते - करते नारद का नाम ही वामदेव प्रसिद्ध हो गया । उन्होंने देवराट् इन्द्र को प्रसन्न कर लिया और देवराट की प्रशंसा में अनेक सूत्र रचे। वशिष्ठ की पैठ देवराट के दरबार में नहीं हुई । उन्होंने इलावर्त त्याग दिया और वे कुछ काल के लिए शाक - द्वीप चले आए। उन दिनों अरब का नाम शाकद्वीप ही था । वशिष्ठ के वंशज मग, मुनि , मौनी प्रसिद्ध हुए । कुशद्वीप - अफ्रीका -में भी मुनिवंशी कुछ लोग जा बसे । शाकद्वीप अरब में वशिष्ठ ने बड़े - बड़े यज्ञ किए । उनके यज्ञों के धुएं और सुगन्ध से दिशाएं व्याप्त रहती थीं । परन्तु भाग्य की बात देखिए यहां भी इनका एक प्रबल प्रतिस्पी उत्पन्न हो गया । ये काव्य -उशना शुक्र थे, जो दैत्यगुरु भृगु के पुत्र थे। भृगु का वंश प्रजापति का वंश होने के कारण अधिक प्रतिष्ठित था और शुक्र तो दैत्यपति बलि और दानवेन्द्र वृषपर्वा के याजक तथा चक्रवती पौरव ययाति के श्वसुर थे ही । उनका बड़ा मान था - बड़ा नाम था । अतः अरब – शाकद्वीप में भी वशिष्ठ का प्रताप फीका ही रहा। भृगुवंशियों का तेज प्रताप वहां बढ़ता गया । लोगों ने काव्य -उशना शुक्र को अपना पूज्य याजक बना लिया । आगे चलकर उन्होंने काव्य का मन्दिर बनाकर उसमें शुक्र की मूर्ति स्थापित की । इसी मन्दिर को आज