सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काबा कहते हैं । वशिष्ठ फिर भारत चले आए और सुदास के कुलगुरु और मन्त्री बने । दाशराज्ञ -युद्ध में उन्होंने बड़ा पराक्रम प्रकट किया । पीछे सुदास से भी नाराज होकर वे सूर्यवंशियों के कुलगुरु हुए। पहले दक्षिण कोसल के कल्माषपाद के पुरोहित बने । पीछे अयोध्या की मूल गद्दी पर आसीन दशरथ के कुलगुरु हुए । दैव - दुर्विपाक से यहां भी उनका प्रतिद्वन्द्वी मिल गया वे थे विश्वामित्र , जिन्हें उन्होंने एक बार युद्ध में परास्त किया था , जबकि कल्माषपाद राज्य के व्यवस्थापक थे। वास्तव में फिर विश्वामित्र ने उन्हें कहीं भी जमने नहीं दिया । सर्वत्र उनसे उनकी खटपट होती ही रही । यह शत्रुता यहां तक बढ़ी कि विश्वामित्र ने वशिष्ठ के सब पुत्रों को मरवा डाला । विश्वामित्र वास्तव में कान्यकुब्ज के राजा थे। यहां प्रसंगवश हम उनके वंश का भी परिचय देंगे । शोण नद के तटवर्ती प्रदेश पर कुश नामक एक राजा राज्य करता था । उसकी पत्नी वैदर्भी से उसे चार पुत्र उत्पन्न हुए । उनके नाम कुशनाभ , कृशाश्व, अमूर्तरजस् और वसु थे। इन चारों राजपुत्रों ने अपने पिता के ही राजकाल में पिता की आज्ञा से चार नगर बसाए- कुशनाभ ने महोदय , कृशाश्व ने कौशाम्बी, अमूर्तरजस् ने धर्मारण्य और वसु ने गिरिव्रज । गिरिव्रज , का नाम वासुमती भी प्रसिद्ध हुआ । यह प्रसिद्ध नगर पांच पर्वतों पर बसा था । आगे यहीं पर प्रसिद्ध जरासन्ध तथा शिशुनागवंशी सम्राट् हुए । कुश राजर्षि थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र कुशनाभ को घृताची अप्सरा से अनेक कन्याएं हुईं । इसी काल में उस क्षेत्र में एक ऋषि चूली नाम के रहते थे। वे बड़े तेजस्वी और विद्वान् थे। उर्मिला गन्धर्वी भी ऋषि के निकट ही कहीं रहती थी । उसकी कन्या सोमदा ऋषि की यदा - कदा सेवा करती रहती थी । बहुत काल बाद वह गन्धर्व- कन्या जब यौवन की देहरी पर पहंची, एक दिन ऋषि ने कहा - “ मैं तझ पर प्रसन्न हं , तु वर मांग! ” इस पर सोमदा ने कहा - “ हे ब्रह्मष्,ि मेरा अभी विवाह नहीं हुआ है तथा मैं किसी की भार्या नहीं हूं । अतः यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं , तो मुझे एक तेजस्वी पुत्र दीजिए। ” ऋषिवर ने गन्धर्वी कन्या की यह याचना सहर्ष स्वीकार कर ली और यथासमय सोमदा के गर्भ से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया । युवा होने पर ब्रह्मदत्त काम्पिल्य नगरी में रहने लगा । उन दिनों काम्पिल्य नगरी में बहुत गन्धर्व रहते थे। शीघ्र ही वह नगरी का राजा हो गया । राजा कुशनाभ ने ब्रह्मदत्त को रूप - गुण - सम्पन्न एवं कुलीन देख अपनी कन्याएं उसे दे दीं । परन्तु बहुत काल बीत जाने पर भी राजा ब्रह्मदत्त को कोई सन्तान नहीं हुई । बड़ी आयु में उसे गाधि नाम का एक पुत्र हुआ, कृशाश्व के पुत्र कृशिक ने उसे गोद लिया। यही गाधि विश्वामित्र के पिता थे। धीरे - धीरे कृशिक ने कान्यकुब्ज में अपना राज्य स्थापित कर लिया , जिसके उत्तराधिकारी गाधि की दो सन्तानें थीं - एक पुत्री , दूसरा पुत्र । पुत्री सत्यवती ऋचीक ऋषि को एक सहस्र श्यामकर्ण अश्व लेकर दे दी गई । विश्वामित्र का बाल्यकाल का नाम विश्वबन्धु था । वे ऋचीक से सब शस्त्र - शास्त्रों में निष्णात हो कान्यकुब्ज के राजा बने । राजा से अरक्षित समझकर ही उन्होंने वशिष्ठ के रक्षित राज्य पर एक अक्षौहिणी सेना लेकर आक्रमण किया था , परन्तु वशिष्ठ के आगे उन्हें हार माननी पड़ी । उन्होंने वशिष्ठ को यह भी उत्कोच देना चाहा कि यदि आप यह राज्य मेरे हवाले कर दें तो मैं आपको सोने से सुसज्जित चौदह सौ हाथी, स्वर्ण से मढ़े हुए आठ सौ रथ , ग्यारह हजार अश्व और एक लाख