62. माहिष्मती का युद्ध सब बातों पर भलीभांति विचार -परामर्श करके , लंका का सारा राज्य- भार विभीषण को सौंप, राक्षसों की चतुरंग चमू ले ; महाबली और विचक्षण महोदर , प्रहस्त , मारीच, शुक्र , सारण और धूम्राक्ष इन छः महामात्यों को साथ ले रावण ने लंका से दिक्प्रस्थान किया । वह समुद्र- पार उतर धनुष्कोटि की राह भारत में घुसा । भारत के सम्पूर्ण समुद्र - तट को उसने सुरक्षित - सुव्यवस्थित किया । फिर भाई खर को उसका सचिव और दूषण को सेनापति बनाया । सब कालिकेयों सहित , जो राक्षस होने की शपथ ले चुके थे, चौदह सहस्र राक्षस भट दण्डकारण्य की रक्षा को नियत किए, दण्डकारण्य में ठौर -ठौर सूर्पनखा ने सैनिक - सन्निवेश स्थापित किए। वहां आर्यों का प्राबल्य न होने पाए, इस सम्बन्ध में उसे बहुत -से महत्त्वपूर्ण आदेश दे वह नदी, नगर, पर्वत , वन, उपवन पार करता हुआ माहिष्मती नगरी के निकट आ पहुंचा। नर्मदा - तट पर उसने अपना सैनिक- सन्निवेश स्थापित कर , निर्द्वन्द्व जल -विहार और मृगया का आनन्द लाभ किया । दैवयोग से जहां रावण ने अपना सन्निवेश स्थापित किया था , वहीं दुर्मद हैहय अर्जुन चक्रवर्ती अपने अवरोध के साथ जल -विहार कर रहा था । उसके अवरोध में सहस्रों स्त्रियां थीं , जो देश - देशान्तरों से एकत्र की गई थीं । रावण को पता चल गया कि निकट ही चक्रवर्ती जल -विहार कर रहा है । उसने अपने मन्त्रियों से सम्मति ली कि इस अवसर पर क्या करना उचित है । मन्त्रियों ने कहा - “ यह चक्रवर्ती माहिष्मती नरेश अर्जुन महातेजस्वी है । इससे यह यहीं घेरकर बन्दी बना लिया जाए तो उत्तम है । इससे द्वन्द्व युद्ध किया जाए या इसे मार ही डाला जाए । इस समय यह अरक्षित है। ” परन्तु रावण को यह मत न रुचा। उसने कहा - “ यह तो मेरी प्रतिष्ठा के सर्वथा विरुद्ध बात होगी । फिर , हमें तो धर्म -विजय भी करनी है । यदि चक्रवर्ती हमारी रक्ष - संस्कृति स्वीकार कर लेता है, तो विग्रह का प्रयोजन क्या है ? हम उसके मित्र हैं । ” मन्त्रियों से बहुत आलाप- प्रलाप हुआ । अन्त में रावण ने कहा - “मैं ऋषि - कुमार हूं , वेदर्षि हूं। रक्ष- संस्कृति का संस्थापक महिदेव और दिक्पति पौलस्त्य कुबेर का भाई हूं । यह अवसर अच्छा है, विग्रह के स्थान पर मैं चक्रवर्ती से सन्धि -वार्ता करना अधिक पसन्द करूंगा। चक्रवर्ती सम्पूर्ण मध्यदेश का स्वामी है, उसके रक्ष - धर्म स्वीकार करने पर सारा मध्यदेश , फिर आर्यावर्त भी राक्षस हो जाएंगे। ” उसने ऋषि - कुमार का वेश धारण किया । कमर में रक्त कौशेय पर व्याघ्र - चर्म बांधा, वक्ष पर स्वर्ण- वर्म धारण किया और कन्धे पर अपना परशु धर वह एकाकी ही वहां जा पहुंचा जहां चक्रवर्ती अपने अवरोध के साथ जल -विहार कर रहा था । नर्मदा -तीर पहुंचकर उसने चक्रवर्ती को सूचित किया कि मैं पौलस्त्य रावण, धनपति दिक्पति कुबेर का अनुज , रक्ष- संस्कृति का संस्थापक हूं। चक्रवर्ती से मैत्री -लाभ चाहता हूं। चक्रवर्ती उस समय
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