परस्पर विग्रह करते हैं । बारह दारुण देवासुर- संग्राम हो चुके । ये संग्राम आर्थिक कम और सांस्कृतिक अधिक थे। आचारों की भिन्नता ही नृवंश की इस विग्रह- भावना का मूल कारण है । पृथ्वी तो बहुत विस्तृत है और नृवंश अभी अधिक विस्तार नहीं पा सका है। फिर भी युद्ध होते हैं । जो भूमि स्वच्छन्द है वहां लोग नहीं बसते, दूसरों की अधिकृत भूमि छीनना चाहते हैं । इसका मूल कारण आचारों की भिन्नता ही है । नृवंश के आचारों का मूल उद्म वेद हैं । परन्तु आर्यों ने वशिष्ठ के नेतृत्व में वैदिक विधि - परम्परा कुछ दूसरी ही स्थापित की है । उधर नारद की बाम - परम्परा देवों और दैत्यों में भी प्रचलित है। भृगु पृथक् ही आथर्वणी परम्परा प्रचलित कर रहे हैं । फिर आर्यों को बड़ा गर्व है , वे तनिक विधि - भंग होने पर ही आर्यजनों का बहिष्कार कर देते हैं । देखो, ऐसे कितने बहिष्कृत आर्य, व्रात्य दक्षिणारण्य तथा आसपास के द्वीप -समूहों में बस गए हैं । अब यदि इन सबको सांस्कृतिक रीति से एक वेद के अधीन नहीं किया जाता है तो नृवंश अपने ही विग्रहों में विनष्ट हो जाएगा । इसलिए महाराज कार्तवीर्य सहस्रबाहु,मैंने यह रक्ष - संस्कृतिस्थापित की है। वयं रक्षामः हमारा मूल - मन्त्र है और समूचे नृवंश को समान वैदिक संस्कृति में दीक्षित करना ही हमारा धर्म है । इसी से मैंने वेदों में समूचे नृवंश के आधारों का समावेश किया है और अब मैंने घमण्डी आर्यों और देवों को जय करने की भावना से लंका त्यागी है। मैं केवल यही चाहता हूं कि वैदिक धर्म में समूचे नृवंश का समन्वय रहे। " __ “ साधु! साधु! अच्छा है पौलस्त्य रावण, तेरा उद्देश्य स्तुत्य है । जहां तक आर्यों के गर्व भंजन का प्रश्न है, मैं तेरे साथ हूं । अनुमति देता हूं , तू मेरी प्रजा में अपने समन्वयमूलक धर्म का प्रचार कर । परन्तु मैं तेरे धर्म में दीक्षित नहीं हो सकता ! हां , मेरी सहानुभूति तुझी से है। स्वस्ति रक्षःपते ! स्वस्ति पौलस्त्य ! जब कभी तू परशु रहित निरस्त्र माहिष्मती में आएगा , तभी तेरा स्वागत होगा । अब तू जा , अपना अभीष्ट सिद्ध कर और कह - मैं तेरा और क्या प्रिय करूं ? तुझे छुट्टी है, मित्र माहिष्मती में जो वस्तु तुझे प्रिय है - स्वेच्छा से ले जा । ” " बस मित्र तेरी मित्रता से मैं सम्पन्न हुआ । तेरी जय हो चक्रवर्ती, पौलस्त्य रावण तेरे लिए जब माहिष्मती में आएगा तो इस परशु के साथ और जब अपने लिए आएगा तो निरस्त्र । " इतना कहकर रावण उठा । चक्रवर्ती ने उठाकर उसे हृदय से लगाया और तब पौलस्त्य रावण माहिष्मती के राजपथ पर रत्न बिखेरता हुआ तथा वहां की कुल - वधूटियों में कौतूहल बढ़ाता हुआ अपनी सेना में लौट आया ।
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