पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२२२

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64. मधुपुरी रावण ने नर्मदा में स्नान कर , जम्बूनद लिंग की बालुका में स्थापना कर सुगन्धित पुष्पों से पूजन किया । फिर वहां से प्रस्थान कर वन , पर्वत , नद-नदी पार करता हुआ मधुपुरी की सीमा में मुकाम किया । आजकल जो प्राचीन पुरी मथुरा के नाम से प्रसिद्ध है , इसी का नाम प्रारम्भ में मधुपुरी था । पाठक मधु असुर को न भूले होंगे । यह उन्हीं पुण्यजनों के वंश का असर था जिन्होंने शर्यातों से अनार्य- राज्य जय किया था और लंका में पहंचकर सुमाली के भाई माल्यवान् की पुत्री , रावण की ममेरी बहन , कुम्भीनसी को चुरा लाया था । मधु ने यह पुरी अभी नई बसाई थी । पाठकों को यह भी स्मरण होगा कि महाप्रतापी सम्राट् , ययाति ने चम्बल , बेतवा और केन वाला इलाका अपने पुत्र यदु को दिया था । यदु के दो पुत्र थे - क्रोष्ट्र और सहस्रजित् । पहले से यादव वंश चला और दूसरे से हैहय वंश। हर्यश्व यदुवंश का उनतालीसवां नृपति था , जिसने मधु असुर की पुत्री से विवाह किया । मधु के संपर्क से युदवंश भी असुरों में गिना जाने लगा तथा आर्यों से इसकी महत्ता कम हो गई । पहले शर्यातों से आनत - राज्य मधु ने छीन लिया , फिर अपने दामाद हर्यश्व को दे स्वयं व्रज में आ मधुपुरी बसाई। परन्तु नई राजधानी बसाने तथा आनर्त - राज्य हैहयों द्वारा आक्रान्त होने से इस समय मधु निर्बल हो रहा था । रावण के आने का समाचार सुन वह भयभीत होकर अपने दुर्ग में छिप गया और दुर्ग में सब द्वार बन्द कर लिए। रावण ने मधुपुरी को घेर लिया और राक्षसों ने चारों ओर से बाण -वर्षा करनी आरम्भ कर दी । दुर्ग पर से मधु ने भी प्रतिकार किया । पर उसका बल यथेष्ट न था । शीघ्र ही दुर्ग भंग हो गया । रावण अकेला ही कन्धे पर परशु रख , मधु -मधु गरजता हुआ मधु असुरपति के अन्तःपुर में घुस गया । अन्तःपुरी की सब चेटी , दासी, किन्नरी भयभीत हो जड़ हो गईं । राक्षसों की सेना महल को घेरकर शोर मचाने लगी । तब कुम्भीनसी ने बाहर आ अर्घ्य, पाद्य , मधुपर्क से रावण का सत्कार किया , पूजन किया और वह रोती - रोती रावण के चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाकर कहने लगी - “ हे वीरबाहु भाई, मेरी रक्षा कर , सूर्पनखा की भांति मुझे विधवा न कर । वैधव्य बड़ा भारी दुःख है । यदि तू मेरा कहना न सुनेगा तो तेरा भला न होगा । " रावण ने उसे सान्त्वना देकर कुशल पूछा और कहा - “ तू निर्भय होकर अपना अभिप्राय कह, तेरी सब इच्छाएं मैं पूर्ण करूंगा। " कुम्भीनसी ने कहा - "रक्षेन्द्र , मेरा पति मधु मुझसे प्रेम करता है, मैं भी उससे प्रेम करती हूं। मैं इस राज्य की महिषी हूं तथा मेरा पुत्र उसका उत्तराधिकारी है। यह सत्य है कि उसने बलात् मेरा हरण किया था , पर यह तो राक्षसों की मर्यादा तूने स्थापित की है। फिर यहां लाकर उसने वेद -विधि से अग्नि की साक्षी में विवाह किया है और मेरा सत्कार भी करता है। इसलिए तू मधु को मेरे लिए क्षमा कर दे। तेरा ऐश्वर्य बढ़े, तू प्रसन्न रह! तू मधु को अभयदान दे! "