66. धनुष - यज्ञ मिथिला के राजा सीरध्वज जनक ने यह प्रण किया था कि जो पुरुष जनकपुर के पिनाक धनुष को चढ़ाकर बाणसंयुक्त कर देगा , उसे ही वह अपनी कन्या सीता दे देंगे । इस धनुष - यज्ञ का निमन्त्रण पृथ्वी के राजाओं को भेजा गया और पृथ्वी - मण्डलस्थ राज - कुल के मुकुटधारी - छत्रधारी राजा महाराज जनक की विश्व - मोहिनी सीता को जय करने जनकपुर में आ पहुंचे। इस समय इन सब छत्रधारियों की चतुरंगिणी सेनाओं की चहल - पहल और हाथियों , घोड़ों , रथों और अन्य वाहनों की भीड़ - भाड़ से जनकपुरी भर गई थी । देश देशान्तरों से वेदवेत्ता ऋषि भी आए थे। उनके निवास- स्थान पर सैकड़ों बैलगाड़ियां और छकड़े खड़े थे । सभी अपने- अपने सुभीते के अनुसार अनुकूल स्थानों पर डेरे डाल रहे थे। महामुनि विश्वामित्र भी राम - लक्ष्मण सहित धूमधाम से आए थे। उनके साथ सैकड़ों वेद पाठी , बटुक , मुनि और अनेक ऋषि थे। मुनि विश्वामित्र के साथ सौ छकड़े आए थे। सीरध्वज महाराज ने सब ऋषियों, मुनियों और छत्रधारियों का समुचित सत्कार किया । सबको यथोचित निवास और आवश्यक सामग्री दी गई। नगर में नित नई धूमधाम होने लगी और अन्ततः वह दिन भी आया जब धनुष - यज्ञ रचा गया । बहुत से राजा भारी- भारी सेना लिए बड़ी तड़क - भड़क और धूमधाम से आए थे । सबके ठाठ एक से एक निराले थे, परन्तु सबसे निराला ठाठ रक्षपति रावण का था । यह महाप्राण पुरुष अकेला ही पांव -प्यादे कन्धे पर परशु रखेसिंह की भांति धीर - मन्थर गति से वहां जा पहुंचा था । उसे न किसी को परिचय देने की आवश्यकता थी , न किसी को उससे पूछने की चिन्ता थी । बहुतों ने उसे देखा और किसी छत्रधारी राजा का सामन्त समझा । किसी ने एकाध बात की भी , तो उसने उसे उत्तर ही नहीं दिया , एक हुंकृति कर आगे बढ़ गया । यज्ञस्थली में पृथ्वी -मंडल के राजा उपस्थित थे। उनके मुकुटमणि सूर्य के प्रकाश में जगमगा रहे थे। रावण ने कमर में रक्त कौशेय , वक्ष में व्याघ्र - चर्म , कंठ में उपवीत , भुजाओं में वलय , कमर में रत्न - कटिबन्ध और पैरों में लाल उपानह धारण किए। मुख पर लिपटी हुई चमकीली काली छोटी - सी दाढ़ी , खड़ी हुई मूंछे , उन पर उभरी नाक और पानीदार गहरी काली आंखें । सिंह जैसे उठान और वृषभ जैसी चाल, अभय दृष्टि । उसे जो देखता देखता ही रह जाता । सब राजाओं से उसका ठाठ निराला था , देखकर मुनि - कुमार का भान होता था । पर विकराल परशु और ज्वलन्त दृष्टि क्या मुनि - कुमार की होती है? वह सब राजाओं की रत्न-मणियों को घूरता हुआ , उनकी उपस्थिति से कुछ भी प्रभावित हुए बिना , धीर गति से यज्ञ - भूमि में आगे बढ़कर वहां पहुंचा, जहां स्वर्ण के मणि - जटित सिंहासन पर महाराज दैत्येन्द्र बैठा था । दैत्येन्द्र का तेज सूर्य के समान था । उसका बड़ा डील - डौल था । रावण ने उसके सम्मुख पहुंचकर तथा परशु कन्धे से उतारकर कहा
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