“ जयतु महाराज:! कश्चित् दैत्येन्द्रो देवासुरसंग्रामेष्वप्रतिहतमहारथो बाणो नाम महातेजा:! ” “ अथ किम् ? बाणोऽस्मि । ” “ अहमभिवादये । " “ कस्त्वं भद्र ? " “ अहं रावणो नाम । ” " आः , अयं लंकाभर्ता? एहि , एहि, स्वस्त्यायुष्मन्! " “ अनुगृहीतोऽस्मि । ” "रक्षः पते , इह तिष्ठ। त्वदागमनं जनकाय निवेदयामि तावत । " बाण की सूचना पाते ही जनक सीरध्वज अपने पुरोहित गौतम - पुत्र शतानन्द के साथ आ उपस्थित हुआ । बाण ने रावण का सप्तद्वीप - पति कहकर परिचय दिया । सीरध्वज ने नम्रता और आदर से कहा " स्वागतमतिथये, एतदासनमास्यताम्। ” " बाढम्! ” कहकर रावण ने आसन ग्रहण किया । जनक ने पुकारकर सेवकों से कहा - “पाद्यमानय । शुश्रूषामो भवन्तम् । ” रावण ने संतुष्ट होकर कहा - “वाचानुवृतिः खल्वतिथिसत्कार। पूजितोऽस्मि । विश्वस्तोऽस्मि । अनेन बहुमानवचनेनानुगृहीतोऽस्मि । आस्यताम् ! ” । इसी समय सब बाजे एकाएक जोर से बज उठे । जनक व्यस्त भाव से यज्ञ - भूमि में चले गए । किसी ने ऊंचे स्वर में पुकारकर कहा “ एवमार्यमिश्रान् विज्ञापयामि । उत्सरन्तु, उत्सरन्तु, आर्या उत्सरन्तु ! । और दूसरे ही क्षण कुमारिकाओं से घिरी हुई , मांगलिक उपचारों - सहित जनकनन्दिनी सीता ने विजयमाला लिए यज्ञ - भूमि में पदार्पण किया । शुभ्र परिधान धारिणी, लज्जावनता , जनकराजनन्दिनी सीता पुष्पभारनमित वृन्त की - सी शोभा का विस्तार कर रही थी । सारी सभा उस सुषमा को देख चित्रलिखित - सी रह गई । आगे चलनेवाली चेटियों ने हाथ की छड़ी ऊंची करके कहा “ एत्वेतु भर्तृदारिके , इयं यज्ञभूमिः, प्रविशतु! " रावण ने उत्सुकतापूर्वक दैत्येन्द्र बाण के कान के पास मुंह लाकर मन्दस्मित स्वर में कहा- “ इयं सा राजदारिका ? अभिजनानुरूपं रूपम् । " " नाहि रूपमेव, गतिरपि खल्वस्या मधुरा । " “ दिष्ट्या सफलं में अभिगमनम् । " “ ममानुरूपमेवाभिहितम्। " इसी समय मन्त्रिगण सैकड़ों मनुष्यों द्वारा उस आठ पहियों वाले शकट को खिंचवाकर यज्ञ - भूमि में ले आए, जिस पर वह दिव्य पिनाकी धनुष रखा था । कंचुकी ने पुकारकर कहा “ एवमायमिश्रान् विज्ञापयामि! यह दिव्य धनुष निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराट को देवताओं ने धरोहर के रूप में सौंपा था । इसी धनुष को रुद्र ने दक्ष - यज्ञ में यज्ञध्वंस - काल में प्रयुक्त किया था ।
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