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पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२२९

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“ इस समय यह प्रसिद्ध धनुष मिथिला राजवंश के पास देवताओं की पवित्र धरोहर के रूप में है। राजर्षि जनक ने एक वार कृषि - यज्ञ करते हुए भौमी कन्या प्राप्त की थी और उसका लालन - पालन पुत्री के समान किया था । उसका नाम सीता है । अब वह राजनन्दिनी विवाह- योग्य वयःसन्धि प्राप्त है । राजर्षि जनक का यह प्रण है कि जो कोई इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर इस पर बाण -संधान करेगा , उसको राजर्षि सीरध्वज अपनी पुत्री देंगे । अब हे नृपतिगण, आप अपने बल और सौभाग्य की परीक्षा करें । " यह सुनकर छत्रधारी नृपति उठ - उठकर धनुष को उठाने लगे। प्रथम उन्होंने एक एक करके जोर लगाया । फिर सबने मिलकर चेष्टा की , परन्तु वे धनुष को हिला भी न सके । वे सब विफल मनोरथ हो खीझकर रह गए और जब उन्होंने देखा कि बिना प्रण पूरा किए राजर्षि जनक किसी को पुत्री नहीं ब्याहेंगे, तो वे सब क्रुद्ध हो , शस्त्र ले - लेकर युद्ध करने को सन्नद्ध हो गए । सीरध्वज ने भी ऐसे समय के लिए चतुरंगिणी सेना तैयार रखी थी । उसने देखते - ही - देखते सब राजाओं को घेर लिया । दैत्येन्द्र बाण और रावण अभी यह तमाशा देख ही रहे थे कि रावण ने उत्तेजित- सा होकर दैत्येन्द्र से कहा " द्रष्टुकामो धनुःश्रेष्ठम्। ” “ परमभास्वरं धनुरेतद्। " तदस्य धनुष आरपोणं करिष्ये। " " न खलु । सुरोपमं पूज्यं धनुर्वरमस्माभिः रुद्रानुयायिभिः । " " तत्किं करणीयमत्र ? ” “तिष्ठ, पश्य कौतुकम् ! " रावण अपने आसन पर बैठ गया । इसी समय यज्ञ - भूमि में राम -लक्ष्मण सहित विश्वामित्र मुनि ने प्रवेश किया । जनक ने अपने पुरोहित और अमात्यों सहित विधिवत् अर्घ्य-पाद्य से ऋषि का पूजन करते हुए कहा " भगवन्स्वागतं तेऽस्तु । किं ते करोमि, भवानाज्ञापयतु! ” विश्वामित्र ने कहा " इमौ लोकविश्रुतौ दशरथस्य पुत्रौ, धानुःश्रेष्ठं द्रष्टुकामौ। " जनक ने कहा - " श्रूयतामस्य धनुष:, यदर्थमिह तिष्ठति , भूतलादुत्थिता ममात्मजा सीतेति विश्रुता वीर्यशुल्केति । एते सर्वे नृपतयो ममात्मजां वरयितुमागताः। तेषां वीर्य जिज्ञासमानानां शैवं धनुरुपाहृतम् । ये न शेकुर्ग्रहणे तस्य धनुष - स्तोलनेऽपि वा , ते अवीर्या नृपतयः प्रत्याख्याताः।तदेतद् परमभास्वरं घनुर्दशय रामाय। यद्यस्म धनुषी रामः कुर्यादारोपणम्, गोरामःकुर्यादारोपणम् , सुतामयोनिजां वीर्यशुल्कां सीतां दद्यां दाशरथयेऽहम् । ” जनके के संकेत से नेत्रवती और कंकियों ने मार्ग -प्रदर्शन किया । विश्वामित्र और राम को वे धनुष के निकट ले गए । भटों ने पुकारकर कहा - “ यही वह धनुष है, जिसे निमिवंश की धरोहर देवों ने धरा है। मिथिला का निमि - राजवंश इसकी पूजा करता रहा है। इस धनुष को असुर , गन्धर्व, देव , राक्षस , यक्ष , किन्नर और बड़े- बड़े उरग भी आक्रान्त नहीं कर सके। " विश्वामित्र ने कहा - " वत्स राम, धनु: पश्य। "