पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२३२

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67. सार्वभौम रावण मिथिला के धनुष -यज्ञ से लौटकर रावण ने शीघ्रतापूर्वक अपना सार्वभौम प्रस्थान किया । उसके शत -सहस्र राक्षस छद्मवेश में हिम - शैल की उपत्यकाओं में कुम्भकर्ण और सुमाली के नेतृत्व में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे, जहां उसके धर्मगुरु और शस्त्र - गुरु रुद्र महादेव की उन पर छत्र - छाया थी । उसने मारीच को खूब आगा -पीछा समझाकर तैयारी करने का आदेश दिया था । नैमिषारण्य से मारीच राक्षसों की सैन्य लिए गंधमादन की ओर प्रस्थान कर चुका था , अतः रावण ने अविलम्ब वहां से कूच बोल दिया और उत्तर कोसल राज्य की सीमा में जा घुसा , जहां महाप्रतापी अनरण्य राज्य कर रहा था । अनरण्य ने रावण को भारी राक्षस सैन्य लिए, अपनी राज्य सीमा में प्रविष्ट होते देखा तो वह दस सहस्र अश्व और बहुत - से रथ , हाथियों से सज्जित सैन्य ले रणांगण में उतरा। घनघोर युद्ध हुआ। राक्षसों ने प्रबल पराक्रम से अनरण्य की सेना को काट डाला। परन्तु महावीर अनरण्य गजराज पर खड़ा हो , हाथ में धनुष ले , अपनी सेना को ललकारता हुआ रावण पर बाण वर्षा करता रहा । अनरण्य के हस्तलाघव और पराक्रम को देख एक बार रावण के सब मन्त्री प्रहस्त आदि घबराकर भागने लगे । तब रावण ललकारता हआ रथ पर चढ़कर उसके सम्मुख आया । यह देख अनरण्य ने भी रथ ग्रहण किया । अब इन दोनों महाविक्रमशाली योद्धाओं ने विविध दिव्य शस्त्रास्त्रों से ऐसा विकट युद्ध किया कि दोनों ओर की सेनाएं स्तम्भित हो गईं। रावण ने वेग से प्रचण्ड आक्रमण करके अनरण्य के रथ के घोड़ों को मार डाला। इस पर अनरण्य ने रथ से कूदकर , बाणों की बौछार से रावण के सारथी को बींध दिया । रावण भी उछलकर रथ से उतर पड़ा और उसने अनरण्य के मस्तक पर गदा का प्रचंड वार किया । उस प्रहार को न सहकर अनरण्य मुंह के बल भूमि पर गिर गया । यह देख रावण अट्टहास करके हंसने लगा । हंसते हंसते उसने कहा - “ राजन , इतने ही बल पर तुम वैश्रवण रावण से युद्ध करने निकल आए ? अब भी यह अच्छा है कि पराजय स्वीकार कर लो और मेरी रक्ष - संस्कृति को भी स्वीकार करो । जो कोई मेरी रक्ष- संस्कृति को स्वीकार करता है उसके लिए अभय, जो स्वीकार नहीं करता उसके मस्तक पर मेरा परशु है । ” उसने अपना विकराल परशु हवा में घुमाया । इस पर अनरण्य ने कहा - “ अरे विश्रवा मुनि के पुत्र , तू क्या अपने ही मुंह से अपनी प्रशंसा करके बड़ा बनना चाहता है ? अरे मूढ़ तू इक्ष्वाकु वंश का अपमान करना चाहता है ? मैं वृद्ध हूं और मेरे प्राणत्याग का यह समय समुचित है तो भी क्या ! अभी इक्ष्वाकु वंश निर्वंश नहीं हुआ है। आ , सावधान हो और युद्ध कर , गाल न बजा ! ” इतना कहकर महाराज अनरण्य ने बाण -वर्षा कर राक्षसों को विकल कर दिया । प्रहस्त , प्रकम्प और अन्य राक्षसों ने चारों ओर से विरथ महाराज अनरण्य को घेर लिया । महातेजस्वी अनरण्य शरीर पर सहस्रों आघात खा वहीं खेत रहे ।