70. अमरावती में उरपुर में श्वसुर तथा सास से सुपूजित होकर रावण अपनी चतुरंगिणी सेना ले अमरावती की ओर बढ़ा । अब तक रावण ने मेघनाद को युद्ध से विरत कर रखा था । उसने कहा था - " पुत्र , तू केवल देखता रह, युद्ध न कर । मैं देवराट् इन्द्र के साथ तेरा प्रथम युद्ध देखना चाहता हूं। ” सो अब जब अमरावती के स्वर्ण- कलश रावण ने देखे, तो पुत्र मेघनाद को छाती से लगाकर उसने कहा - “ पुत्र , यह अमरावती है, यहां हमारे राक्षस धर्म के परम विरोधी देव आदित्य रहते हैं । अब तेरा यह कार्य है कि इस देवराट को रस्सियों में बांध ला । आज तू ही इस देवाभियान का नेतृत्व कर, पुत्र ! हम सब तेरे अनुगत रहकर तेरी पृष्ठ -रक्षा करेंगे। " पिता के वचन सुन मेघनाद ने रावण की परिक्रमा कर प्रणाम किया और कहा - “तात आप मेरा कौतुक देखें कि किस प्रकार देवराट को बांधकर आपके चरणों में ला डालता हूं । " इतना कहकर मेघनाद ने वर्म पहना, शस्त्र धारण किए और श्यामकर्ण सोलह घोड़ों के रथ में बैठे समूचे रक्षबल का वज्र - व्यूह रच , धौंसा बजाता हुआ अमरावती की ओर अग्रसर हुआ । राक्षसों की इस महती वीरवाहिनी को देखकर देवतागण घबरा गए । देवराट् ने अपने पुत्र जयन्त को मेघनाद से लोहा लेने को भेजा और पुर के सब राह- घाट पर अपने धनुर्धर देवों को सन्नद्ध किया । दोनों ओर से रणवाद्य बजते ही दोनों सेनाएं भिड़ गईं । जयन्त के संरक्षण में देव सैन्य ने मेघनाद पर भीषण प्रहार करने आरम्भ किए । मेघनाद ने अनायास ही जयन्त के सभी बाणों को काट डाला तथा एकबारगी ही बाणों के जाल से उसे ढांप दिया । यह एक अभूतपूर्व धानुयुद्ध था , जिसमें एक ओर एकाकी मेघनाद - रुद्र -किंकर , विद्युत् -प्रवाह की भांति बाण -वर्षा कर रहा था , दूसरी ओर जयन्त देवराट- सुत दिव्य रथ पर सवार, जिसमें स्वर्णाभरण पहने सोलह श्वेत अश्व जुते थे, अपना अमोघ लाघव दिखा रहा था । देखते - ही देखते मेघनाद ने देव - सारिथ मातलि को बाणों से छेद दिया । उत्तर में जयन्त ने मेघनाद के सारथि वीर चूड़ामणि सारण को अग्निबाणों से दग्ध कर दिया । इस पर अति आवेशित हो मेघनाद ने मायाचक्र रच युद्धभूमि में घोर अन्धकार फैला दिया और फिर चारों ओर से प्रास , मुशल , शतन्नियों के प्रहार से देवकुल को आतंकित कर दिया । ऐसा अद्भुत और भयानक युद्ध देख देव हाहाकर कर भागने लगे । किसी को भी अपने - पराये का ज्ञान न रहा । युद्ध का सारा क्रम भंग हो गया । अब मायावी मेघनाद जयन्त पर अन्तक के समान प्रहार करने लगा। जयन्त पर घोर विपत्ति आई देख , उसके नाना भीम -विक्रम दानवेन्द्र पुलोमा ने व्यूह में बलात् घुसकर रथ पर से जयन्त को उठा लिया और उसे कांख में दबा, जल -स्तम्भनी विद्या द्वारा समुद्र
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