78. वन - गमन अन्ततः पूर्वदत्त वचनों के बल पर कैकेयी ने चौदह वर्ष के लिए राम - वनवास और भरत के लिए राज्य - भोग लिया । राम को वन जाना पड़ा । सीता और लक्ष्मण प्रेम - वश उनके साथ गए । दुःख , क्षोभ और ग्लानि से दशरथ ने प्राण त्यागे। भरत ने राम को लौटाने के बहुत प्रयत्न किए, पर सफल न हुए । तब वे राम के प्रतिनिधि - रूप हो राज्य करने लगे । राम दस मास चित्रकूट में रहकर दण्डकारण्य चले गए तथा वहां बारह वर्ष पंचवटी में रहे । यहां जन स्थान में अगस्त्य से उनकी भेंट हुई। यहीं उन्हें राक्षसों का विकट साम्मुख्य करना पड़ा । अगस्त्य का इस समय दक्षिणारण्य में भारी प्रताप था । उन्होंने अनेक राक्षसों को मारा था । राक्षसों से उनके आए दिन झगड़े होते रहते थे। वे बड़े प्रतापी ऋषि थे। इनकी पत्नी वैदर्भी लोपामुद्रा थी तथा इनका आश्रम सब भगौडुओं का आर्यों का आश्रय -स्थल था । ये दोनों ही पति - पत्नी वेदर्षि थे। इन्होंने अरब सागर के जल - दस्युओं को मारकर जल व्यापार निष्कंटक किया था । राम को अगस्त्य से तथा अगस्त्य को राम से बहुत सहायता मिली । दण्डकारण्य में रहते हुए राम को सर्वप्रथम विराध राक्षस का विकट साम्मुख्य करना पड़ा । ऋषियों ने उन्हें इस तेजस्वी राक्षस से सावधान कर दिया था । यह विराध पहले गन्धर्व था और इसका नाम तुम्बुरु था । यह लंका में कुबेर का कोई सेनानायक था । बाद में कुबेर से बिगड़कर यह रावण के प्रभाव में आ राक्षस हो गया था तथा रावण के एक सेनानायक के समान दण्डकवन में रहता था । यह तपस्वियों, ऋषियों, आर्यों तथा उनकी यज्ञ -विधियों का घोर शत्रु था । यह महाबली , अजेय योद्धा था । इसके शरीर में दस हाथियों का बल था । एक बार वन में मृगया करते हुए अचानक ही राम की भेंट इस राक्षस से हो गई । यह राक्षस उस समय व्याघ्रचर्म कमर में लपेट अपना आखेट कर एक शूल से व्याघ्र , हरिण और सिंह का सिर लटकाए लौट रहा था । उसके आतंक और गर्जन से वन आतंकित हो रहा था । ज्यों ही उसने राम , सीता और लक्ष्मण को सम्मुख आते देखा तो सहसा रुककर कहा - “ अरे , तुम कौन नवागन्तुक यहां दण्डकवन में निर्भय घूम रहे हो ? तुम्हें तो मैं यहां प्रथम बार ही देख रहा हूं। यह क्या बात है तुम्हारे सिर पर तो तपस्वियों के समान जटाजूट है, पर कन्धे पर धनुष और साथ में स्त्री क्यों है? स्त्री - सहित तपस्वियों का इस प्रकार घूमना बड़े कलंक की बात है । मुझे तो तुम लोग कोई कपटी तपस्वी प्रतीत होते हो । मैं विराध राक्षस हूं और तुम जैसे पाखण्डी तपस्वियों का आखेट करना ही मेरा कार्य है । आज मैं तुम दोनों पापिष्ठों का रक्तपान करूंगा और यह सुन्दरी मेरी स्त्री बनेगी । " यह कहकर उसने लपककर सीता को अपनी बगल में दबोच लिया और अपना शूल हवा में घुमाता हुआ चीत्कार करता हआ वन की ओर चल दिया । सीता उसके अंक में जाते ही भय से मूर्छित हो गई । यह देख राम एकदम व्याकुल और किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए । वे
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