पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२८०

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79. हरण एक तापसी के साथ सीता आश्रम के पौधों में जल सींच रही थी । जल सींचते सींचते वह तापसी से कह रही थी - “ आर्यों, ये देव -निर्माल्य पुष्प - वृन्त ही हमारे इस आश्रम की सम्पदा हैं । इसी से जब तक आर्यपुत्र वन से नहीं लौट आते, मैं इन बाल - वृक्षों को सींचती रहूंगी । " तापसी ने कहा - “ भगवती ने ठीक ही कहा है। लो , मैं सरोवर से जल लाती हूं - तुम इन वृक्षों के मूल में सींचो । " तापसी कलश उठाकर चली तो सामने फल - मूल और आखेट लिए राम को आते देखकर बोली - “ अहा, रामचन्द्र आ गए। " राम ने सीता को जल से भरा घड़ा उठाए पौधों को सींचते देखा तो उनका मन खिन्न हो गया । उन्होंने मन- ही - मन कहा - "धिक्कष्ट, यह राज्य - भार भी कैसा गर्हित है , जिसने हमें वन में वास करने को विवश किया ! यह वैदेही, जो हाथ में दर्पण लेने से भी थक जाती थी , जलपूर्ण घट लिए कब से पौधों को सींच रही है । परन्तु यह प्रिया वैदेही तो कष्ट से भी विनोद की रचना करती है। देखो , ये प्यासे विहग उसकी छोड़ी हुई जलधार में चोंच डुबोकर पानी पीते हुए कितने भले लगते हैं ! परन्तु यह वन तो स्त्री - सौकुमार्य को भी वन लताओं की भांति सुखाकर कठोर कर देता है। धन्य है वैदेही की यह श्रम -तपस्या ! " उन्होंने आगे बढ़कर कहा - “ मैथिली , तेरी तपस्या अभी पूरी हुई या नहीं ? " " अहा! आर्यपुत्र हैं । जयत्वार्यपत्रः! " “ परिश्रम से श्रान्त - क्लान्त श्रम -सीकर से सम्पन्न तेरा मुख सद्यः स्नात कमल सा दीख रहा है। सो अब तेरी तपस्या में विघ्न न हो तो आ , यहां शीतल छाया मैं बैठें । " “ जैसी आर्यपुत्र की आज्ञा ! ___ “ सीते , यह कैसा सुहावना समय है । शीत के कारण शरीर में स्फूर्ति का अनुभव हो रहा है, अब शरीर अधिक जल का प्रयोग नहीं सह सकता, सहसा भूमि शस्य -श्यामला हो रही है । शरीर को अग्नि और धूप - सुहाने लगी । इन्हीं दिनों राजा लोग विजय - कामना से निकलते हैं तथा सूर्य दक्षिणायन आ जाते हैं । हिमवान् भी अपने वास्तविक रूप को प्रकट करता है , अब तो दोपहर को भी बाहर आने में कष्ट नहीं होता । वृक्षों की छाया और शीतल जल अब अच्छा नहीं लगता । हिम के कारण रात्रि अधिक अंधेरी हो जाती है । शीत के कारण घर से बाहर कोई आदमी नहीं निकलता । पूर्णिमा की रात्रि भी अब धूमिल होती है , वायु भी अधिक शीतल हो गई है। शस्य - श्यामला भूमि कुहरे से आच्छादित कान्तिहीन प्रतीत हो रही है । सूर्य के उदय होते ही सारा वन -प्रदेश प्रदीप्त - सा हो उठता है । प्रातःकालीन सूर्य का प्रकाश तो मन्द रहता है, पर मध्याह्न में अब वह सुखकर प्रतीत होता है । जल शीतल हो जाने से गजराज अपनी सूंड़ जल में डालते ही बाहर निकाल देते