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पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२८१

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हैं । जल के पक्षी जल में बैठे हुए भी जल में चोंच डालने का साहस नहीं कर सकते । " राम के मुख से यह वर्णन सुनकर सीता ने कहा - " आर्यपुत्र , धर्मात्मा भरत का इस समय क्या हाल होगा ? वे तो आपके कारण अपनी ही राजधानी में सब राज - भोग त्याग तापस -जीवन व्यतीत कर रहे हैं । राज्य- मान और भोग - सब उन्होंने त्याग दिया है। वे फल फूल का नियमित आहार करने के कारण अति कृश हो गए होंगे। इस शीतकाल में भी ब्रह्मचारी हो कठिन भूमि में सोते होंगे । वे निश्चय ही ब्रह्मवेला में सब अमात्यजनों सहित सरयू तट पर जाते होंगे । उन सत्यवादी भरत ने तो सब कुछ त्याग आप ही का आश्रय लिया है । लोग कहते हैं कि मनुष्य अपनी माता के गुणों का अनुसरण करता है, परन्तु महात्मा भरत ने तो अपने बर्ताव से इस लोकोक्ति को मिथ्या सिद्ध कर दिया है । हे आर्यपुत्र ! धर्मात्मा दशरथ जैसे जिनके पति और भरत जैसे जिनके साधुपुत्र हों , वह कैकेयी माता कैसे ऐसी निष्ठर हो गई ? " इसी समय किसी ने बाहर से पुकारा – “अहमतिथिः । कोऽत्र भोः! " राम ने सुनकर कहा - " स्वागतमतिथये! " उन्होंने द्वार पर जाकर देखा - एक तपस्वी मृगचर्म धारण किए , दण्ड हाथ में लिए खड़ा है । दृष्टि उसकी सतेज है, सिर पर जटाजूट है। राम ने कहा - “ अये भगवन् ! अभिवादये । " " स्वस्ति । मेरा काश्यप गोत्र है। मैंने सांगोपांग वेद पढ़ा है । मैं धर्मशास्त्र , अर्थशास्त्र और योगशास्त्र का भी ज्ञाता हूं । " "भगवन् , यह आसन है, बैठिए। " अतिथि के बैठने पर राम ने कहा- “ मैथिलि , पाद्य लाओ, अर्घ्यलाओ, अतिथि का सत्कार करो। " रावण ने बैठते हए कहा - “ सत्कृतोऽस्मि । पूजितोऽस्मि । अहा , हिमालय के सप्तम श्रृंग पर जो कांचन -पार्श्व मृग मैंने देखा , उसकी शोभा अकथनीय थी । " ___ “ क्या वैसे मृग अन्यत्र नहीं होते ? ” – सीता ने उत्सुकता से पूछा । __ “ वहीं हैं । वे मन्दाकिनी का गंगाजल पान करते हैं , बैदूर्य - मणि - सा श्याम उनका पृष्ठ है, पवन के समान वेग है । वे नीलग्रीव, रक्तशीर्ष, कृष्णपाद और श्वेतच्छद- स्वरूप हैं । " सीता ने चमत्कृत होकर कहा - " भाग्यवन्त हिमशैल -पार्श्ववर्ती देव ही उस रम्य हरिण को देख सकते हैं । आर्यपुत्र , क्यों न हम लोग भी चलकर वहीं रहें । " । राम ने हंसकर कहा - “प्रिये , तूने यहां जिन मृग - शावकों तथा गुल्मों को अपना पुत्र बनाया है और जिन लताओं को तू सखी के समान प्यार करती है, उनसे पूछ ले । " रावण ने कहा - “ अहा, हिमवंत शैल के उस अंचल में जो ज्योतिर्लतारण्य है, वह तो वहां कभी रात्रि का भान ही नहीं होने देता । ” " क्या भगवन् वहीं हिम शैल -शिखर पर रहते हैं ? " " नहीं तो क्या ? किन्तु अरे , यह क्या चमत्कार है! यह विद्युत् की - सी चमक कैसी हुई ? अरे ! वह देखो, कांचन -पार्श्व मृग है ! " “ क्या सचमुच ? ” " देखो - देखो, वह भागा, यह मुड़ा ! "