पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२९१

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मदालसा ही है । अहा, यह मदालसा चन्द्रमा की किरणों की भांति स्पर्श ही से मन को शीतल कर देती है। यह कितनी सुन्दर , कितनी कोमल , मृदुल और प्राणों को आनन्द देने वाली है ! इसका ललित अंगहार कितना मनोहर है ! मृदु मुस्कान कितनी आकर्षक है! इसका यह सविलास तरलाक्षिविक्षेप पुष्प -बाण का दोहद -दान ही समझना चाहिए , न तो इसे धन का ही लोभ है, न किसी पर नेत्रासक्ति है । यह मुग्धा सीधी भी है और शिष्ट भी । कभी किसी पुरुष की ओर यह नजर उठाकर भी नहीं देखती । न मेरे अतिरिक्त किसी की प्रशंसा करती है। कालोचित इसका वेश -विन्यास होता है । यह गजगामिनी मेरी प्रिया इस पृथ्वी पर अद्वितीय है । इसमें चक्रवाक , हंस , नकुल, पारावत - सभी के गुणों का समावेश है । इसका हास्य मनोहर है, ऐसी दुर्लभ, अनुकूल , मनोहारी और सुन्दर स्त्री संसार में और कौन है भला ? भार्या तो केवल अन्न - वस्त्र द्वारा भरणीया ही होती है, स्नेह - समागम के योग्य तो यह वार - वनिता ही है । अजी, परिणीता में अनेक दुर्गुण हैं । वह भाइयों से अलग कर देती है , कटु भाषण करती है , सदा घर के दुखड़े रोती रहती है और सदैव मातृकुल की ही प्रशंसा करती है । पति के सदा दोष निकालती है । फिर भी मूर्ख जन उसी पत्नी के वश में रहते हैं । पर इस मदालसा को देखो - जैसा मृदुल इसका तन है , वैसा ही मन है। " और वह दिन भी आ गया -जब मदालसा मां को छोड़ राजकुमार के नव -निर्मित आवास में आ रहने लगी। उसे बहुमूल्य अलंकार राजकुमार ने भेंट किए, परन्तु एक दिन राजकुमार के पास से जाती हुई मदालसा को चोरों ने लूट लिया । इसके दो - चार दिन बाद ऋणदाता ने मदालसा की देहरी पर धरना दिया । राजकुमार को ऋण चुकाना पड़ा । दो चार दिन बाद राजकुमार की स्वस्ति - कामना के लिए बलि - पूजन का आयोजन हुआ । इस प्रकार विविध भांति से धन - हरण करने पर राजकुमार का भली - भांति तिरस्कार कर अन्त में यह समझा- बुझाकर कि माता बहुत गुस्से में है, अत : कुछ दिन आना -जाना बन्द रखो उसे दूर कर , दूसरे ग्राहक से व्यापार आरम्भ किया ।