पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२९०

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यों कुछ काल रस -कस ग्रहण होने पर अब कुट्टिनी और नायिका में इस तरह मिथ्या वचन -कलह आरम्भ हुआ कि जिसमें राजपुत्र उसे अज्ञान में किसी तरह सुन ले - “ अरी अभागिनी , तूने इस राजकुमार के पीछे अपरिमित धनवान् , विनयी और प्रेमी मन्त्री - पुत्र को भी कुछ न गिना और मन्दारक रत्न - पारखी प्रभृत धनदाता को तूने मेरे कहने पर भी दुत्कार दिया ! अरी मूढ़, तूने अनेक राजवर्गी जनों की ओर, जो बात की बात में मेरा घर भर दे सकते थे, आंख उठाकर भी न देखा ! ऐसी तू इस राजकुमार पर अन्धी हो अनुरक्त हो गई । तुझ विपरीत बुद्धि ने महाधनदाता शौल्किकाध्यक्ष को भी अपमानित करके लौटा दिया । उस रोगी मृतप्राय बूढ़े का अतिसमृद्ध पुत्र भी तूने हाथ से खो दिया , जो अपना सर्वस्व तुझ पर वार रहा था । इस प्रकार तूने घर में आई लक्ष्मी को लात मारी। अरी पापिन , यह सब तेरी ही मूर्खता का परिणाम है कि हम इस राज- पुत्र के पीछे लुट बैठे । देख , उस दन्तवक्र के पुत्र ने मालिनी को कैसे जड़ाऊ अलंकार दिए हैं तुझे उन्हें देखकर भी लाज नहीं आती ! उस धवल गृह को ही देख , जो अनंगदा के लिए उस आपणिक ने बनवा दिया है । क्या तू इतना भी नहीं समझती कि गणिका के लिए यही आयु कमाई करने की है! अब यदि इस धनार्जन - अनुकूल समय में वेश्या की बेटी एक पुरुष को लेकर प्रेम के वशीभूत हो बैठे , तो वृद्धावस्था में उसे भिक्षा ही मांगनी होगी। क्या तूने वह नीति - वाक्य नहीं सुना - द्वितीये नार्जितं धनं - चतुर्थे किं करिष्यति ? क्या तू नहीं जानती - सद्भावजाऽनु रक्तिर्नहि पथ्यं पण्यनारीणाम्। सो मैंने अपना देह बेचकर जो कमाया है, वह द्रव्यभाण्ड ला दे, मैं तो अब तीर्थयात्रा को जाती हूं । तू अपने यार को लेकर रह ! " बुड्ढी कुट्टिनी के इस प्रकार मिथ्या कलह का उपसंहार होने पर मदालसा ने रोष भरे स्वर में कहा - “ अरी मात :, धनलाभ ही संसार में बड़ा लाभ नहीं है, प्रिय - संयोग ही बड़ा लाभ है । धन तो आता- जाता ही रहता है । उससे क्या मन की तृप्ति होती है ? अनुराग से सिक्त तारुण्य को भला विभवार्जन की क्या चिंता हो सकती है ? प्रिय - सहवास में ताम्बूलयाचन ही सबसे बड़ा लाभ है ? प्रिय- सहवास के समान तो सकल वसुन्धरा का भी मूल्य नहीं है, फिर राजकुमार ने तो सब गणिकाओं में मुझे ही वार -मुख्या बना दिया है । मात :, तू भोली है, इसी से तेरा यह उपदेश व्यर्थ है । अब तो भला हो या बुरा , सुगति हो या दुर्गति , महल में रहूं या वन में , स्वर्ग में या नरक में , उसी के साथ मेरा रहना , मरना , जीना है । व्यर्थ बकवाद से क्या प्रयोजन ! और तू जो अपने आभूषणों की बात कहती है, सो यह ले –मैं तो अपने राजपुत्र ही से सुभूषित हूं । मैं तेरे समान लोभ के वशीभूत नहीं हूं । मैं तेरे इस घर में भी न रहूंगी । " इतना कहकर उसने सब गहने उताकर कुट्टिनी के ऊपर फेंक दिए और गुस्से में ऐंठती हुई वहां से चली गई । परोक्ष में मूर्ख राजकुमार ने जो यह कपट -कलह सुना तो वह रागान्ध हो सोचने लगा - “ अहा , धन्य है , यह वारवनिता प्रिया मदालसा , जो मेरे लिए जननी जन्मस्थान , बान्धव , वस्त्रालंकार सभी को तृण के समान समझती है। सच है - मरणमपि तृणं समर्थयन्ते मनसिजपौरुषवासितास्तरुण्य :। अब जब इस मदालसा ने माता का मोह त्याग घर में रहना भी अस्वीकार कर दिया है तो फिर इससे अधिक प्रिय मेरे लिए क्या है! मैं भी अपना सर्वस्व देकर इसे ही तृप्त करूंगा। घर - बार , बन्धु - परिवार , संसार - मेरा जो कुछ भी है, वह