विरोधी हो उठा । उसके बाद नहष और रजि ने देवलोक में जो उत्पात मचाए उससे देवों की शक्ति क्षीण हो गई । बाद में रजि को बृहस्पति ने चार्वाक -सिद्धान्तों का उपदेश दिया तो रजि का वंश ही वैदिक आर्य परिवार से पृथक् हो गया । इस प्रकार नाहुषों से देवों का पिण्ड छूटा । पर देवराट् पद्धति चल गई । देव चुनकर अपना इन्द्र नियत करते और वह देवों को अनुशासित करता था । तारकामय- संग्राम में जब प्रह्लाद - पुत्र विरोचन का वध हुआ और विजयी होकर दैत्यों ने विरोचन - पुत्र बलि को दैत्येन्द्र - पद पर अभिषिक्त किया , तब दैत्येन्द्र बलि की आज्ञा से दैत्यों ने बैल के चमड़े का तस्मा लेकर सारी भूमि को आपस में बांटना प्रारम्भ किया । इससे देवों में बड़ी घबराहट फैल गई । इन्द्र इस समय बड़ी ही विपन्नावस्था में था । देवों का सारा बल ही बिखर गया था । परन्तु इन्द्र विष्णु को साथ लेकर अनेक प्रमुख देवों के साथ बलि की सेवा में पहुंचा और कहा कि पृथ्वी में हमारा भी भाग है। हम लोग आप ही के दायाद – बान्धव हैं । इसलिए हमारी जो देवभूमि आपने जय की है , वह हमें लौटा दीजिए। यह हम आपसे याचना करते हैं । उन दिनों सर्य ने आर्यों के लिए नवीन यज्ञ- विधि की सष्टि की थी । वही यज्ञ- विधि आदित्यों , देवों और आर्यों में प्रचलित हो गई थी । यह यज्ञ -विधि एक प्रकार से देवों का सांस्कृतिकचिह्न- सी हो गई थी तथा सूर्य का नाम इसी यज्ञ - विधि को प्रचलित करने से विष्णु प्रसिद्ध हो गया था । यज्ञो वै विष्णु: यह देवों का एक घोषण- वाक्य उन दिनों हो गया था । बलि ने देवों की बात पर विचार किया । अपने कुलगुरु शुक्र और मन्त्रियों से परामर्श किया । परन्तु कवि शुक्राचार्य देवों तथा विष्णु का सारा ही षड्यन्त्र जानते थे। उन्होंने बलि को परामर्श दिया - “ इस भूमि में से देवों को कुछ भी भाग नहीं मिलेगा। देव हमारी दैत्य भूमि से निकल जाएं । आर्यावर्त में या जहां चाहें चले जाएं । वे खटपटी , कुटिल और झगड़ालू हैं । उनके रहने से दैत्य भूमि निरन्तर युद्ध-स्थली बनी रहेगी । " । कवि शुक्राचार्य बड़े प्रभावशाली और तेजस्वी पुरुष थे। उनका विरोध साधारण न था । परन्तु इन्द्र भी बहुत ही कुटिल व धूर्त पुरुष था । उसने अपनी कन्या जयन्ती को शुक्र के पास भेज दिया । जयन्ती बड़ी चपला और सुन्दरी तरुणी थी । उसने अपने रूप के मायाजाल में बूढ़े को फांस लिया । बहुत वाद-विवाद और परामर्श के बाद यह तय हुआ कि जहां यज्ञविधि है - अग्न्याधान है - अग्निहोत्र है - अग्नि - स्थापना है, वहां - वहां की भूमि देवों को दे दी जाए। शुक्र यद्यपि जयन्ती के रूप -जाल में फंसे थे, फिर भी उन्होंने बलि के इस निर्णय को मूर्खतापूर्ण कहा और उसका प्रबल विरोध किया परन्तु बलि ने दैत्यगुरु का अनुरोध नहीं माना। इससे गुस्सा होकर कवि उशना शुक्राचार्य दैत्यभूमि को छोड़ नाभि - भूमि शंकद्वीप में चले आए । बलि को उन्होंने त्याग दिया । प्राचीन काल में जिसे नाभि या भूमि कहते थे, उसी को आज अरब देश कहते हैं । उन दिनों इस भूमि पर वाशिष्ठों का खानदान रहता था तथा उन्हीं का यहां प्रभुत्व भी था । आजकल जिस नगर को अदन कहते हैं , यही नगर उन दिनों वाशिष्ठों का प्रमुख नगर था तथा उसका नाम आदित्य नगर था । संस्कृत में आदित्य सूर्य को कहते हैं और अरबी भाषा में ‘ आद सूर्य को कहते हैं । यारब , एदम , एरीथस , आद - ये सब सूर्य ही के पर्यायवाची
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