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पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२९४

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शब्द हैं । लाल सागर का नाम भी सूर्य के ही नाम पर था । सीरियन अरबी सूर्य - उपासक थे। वास्तव में वे वशिष्ठ के वंशधर थे। अदन या आद नगर में उन्होंने आद , आदित्य का एक मन्दिर बनवाया था , जो सोने - चांदी की ईंटों से बना था । इसकी छत मोतियों तथा हीरों से बनी थी । उन दिनों यह देश पूर्व और पश्चिम के बीच व्यापार का माध्यम था । वाणिज्य के बाहुल्य के कारण तब यह देश मालामाल रहता था । उस काल में यहां के निवासी असुर और फणीश बड़े प्रसिद्ध नाविक थे। मिस्र , अरब और भारत को उन दिनों एक व्यापार , शृंखला ने जोड़ रखा था । यही कारण है कि भारत से अरब या मिस्र के जो जल - थल - मार्ग थे वहीं इस भूमि पर विशेष आबादी हुई । शेष भाग जन - शून्य रहा। उन दिनों के बाद भी अरब बहुत काल तक सांसारिक व्यापार भण्डार रहा। अरब की इस व्यापार - श्री की स्तुति बहुत ख्यातनामा इतिहासज्ञों ने की है । इस देश में चन्दन , अगरु आदि के सुगन्धित ईंधनों से खाना पकता था तथा धन खर्च करने और शान - शौकत में अरब के धनीजन संसार - भर के राजा - महाराजाओं को मात करते थे। उनके प्रासादों के किवाड़ हाथीदांत , सुवर्ण व मणिजड़ित होते थे। अरब में उन दिनों स्वर्ण की इतनी बहुतायत थी कि उसका मूल्य लोहे से केवल दूना और पीतल से तिगुना था । वाशिष्ठों ने अपनी यज्ञ - विधि से सारे प्रदेश को व्याप्त कर रखा था । प्रसिद्ध है कि अरब के काबा आदि धर्मक्षेत्रों की यज्ञ होम की सुगन्धित वायु मिस्र देश तक पहुंचती थी । इसीलिए एलेग्जेण्डर ने बेबीलोनिया अपनी राजधानी स्थापित करनी चाही थी तथा मिल्टन ने अपने काव्य में अरब की सुगन्धित वायु से सागरों के महकने का उल्लेख किया । वाणिज्य और राजनीति का केन्द्रस्थल होने से यहां भी कई बड़े देवासुर - संग्राम हुए। वाशिष्ठों ने इसे महिदेवों का उपनिवेश बना दिया था । अरब में प्राचीन किंवदन्ती है कि लाहसा एवं बहरियन प्रान्तों में पहले दानव वीर वास करते थे । इस प्रान्त को अरब लोग अब भी रोबाउलखेत कहते हैं । आज भी अरब में शहसवार और वीर प्रसिद्ध हैं । ____ पाठकों को स्मरण होगा कि वशिष्ठ भी सूर्य के ही पुत्र थे। इससे वे आगे चलकर सूर्यवंशियों के, अथच सभी आदित्यों के , कुलगुरु और राजमन्त्री बन गए थे। यहां गाद में उन्होंने जिस सूर्य - मन्दिर की स्थापना की थी , उसके पुजारी भी वाशिष्ठ लोग ही थे। वशिष्ठ स्वयं थोड़े ही दिन यहां रहे , नारद से विग्रह कर वे देवलोक से चले आए-फिर यहां शुक्राचार्य के आ बसने पर भारत में सुदास के यहां आ गए। परन्तु उनके वंशधर और जायदाद - भूमि - सम्पत्ति सब अरब ही में रही। रब , रू सूर्य ही के नाम थे और उसके पुरोहित मग, वाशिष्ठ थे । योम - आह, रविवार, रवि - आह एक व रवि - आह दो , सूर्य ही के दिन व मास हैं । रमजान मास का नाम पहले ‘रमादान था । यह मुसलमानों का बनाया महीना है । मग, मिहिर, मूक, मौनी, मुनि ये वशिष्ठ ही के वंशधर थे। अरब के मूक , मोखा , महरा, मक्का , मकरनियत , मैरवा आदि प्रदेशों और नगरों के नाम भी उसी आधार पर हैं । वशिष्ठ को कामधेनपति भी कहा जाता है । कामधेन की भूमि उनकी जन्मभूमि और पैतक सम्पत्ति थी । मगों के यज्ञों की सुगन्ध से समुद्र की वायु सुगन्धित रहती थी । अरब के यमन प्रदेश में मुनियों के अनगिनत आश्रम , जनपद और उपनिवेश थे और वहां के हामाहामियारी सूर्य- उपासक थे । परन्तु दैत्य - भूमि छोड़कर जब कवि उशना शुक्राचार्य अरब में आए तो उन्होंने