बलि भारी धर्म- संकट में पड़ा। अन्त में देवों ने उसे बन्दी बना लिया और दैत्यों का साम्राज्य छिन्न -भिन्न कर डाला । बलि के वंशज ही सम्भवतः वाह्लीक , सीरिया , बलख के राजा थे। इसी वंश में मद्रपति शल्य अतिरथी हुए , जो महाभारत युद्ध के प्रसिद्ध योद्धा हैं तथा जिन्हें पाश्चात्य जन सोलोमन या सुलेमान के नाम से जानते हैं । यह भूमि , जिसे जलाकर देवों ने प्राप्त किया , वही भूमि है जिसे पोर्शिया के नक्शे में ‘ पर्शियन साल्ट - डेजर्ट , कहते हैं । इसी प्रदेश का नाम लट , लूट या कबीर है । पर्शिया के प्राचीन इतिहास में लिखा है कि वहां पहले बड़े- बड़े नगर थे, जिन्हें देवों ने जला दिया । पुराणों में इसी स्थान का नाम नन्दन वन है। आजकल जो जाति वहां रहती है, वह दाहे कहाती है तथा उस प्रान्त को दाहिस्तान भी कहते हैं । यह स्थान काश्यप सागर व ओक्सस व आधुनिक पारदिया के ऊपर है। अस्तु ! जब बलि को बन्दी बना लिया गया और दैत्यलोक पर फिर देवों ने अधिकार कर लिया , तो देवों ने जहां - जहां दैत्यों का बल देखा , वहीं उनका विनाश कर दिया । इस प्रकार बहुत दैत्य दैत्यलोक से पलायन कर गए । पीछे जब बाण महातेज ने होश संभाला तो उसने फिर दैत्यों का संगठन किया । बाण महातेजवान् पुरुष था । देवलोक में उसके साम्मुख्य की किसी में सामर्थ्य न थी । उसने प्रारम्भ में छोटे - छोटे युद्ध करके अपने दैत्य - साम्राज्य को फिर से व्यवस्थित किया । देवों ने भी उसे नहीं छोड़ा। इस प्रकार देव , दानव , दैत्य , नाग , वरुण एक प्रकार से मिल - जुलकर ही भूमि पर रहने लगे। इस बीच चार दिक्पाल नियुक्त कर देवों ने अपनी स्थिति और दृढ़ कर ली । अब देवों का संगठन दैत्यों की अपेक्षा कहीं उत्कृष्ट था । परन्तु रावण के अभियान ने इस बार देवों के संगठन को ध्वस्त कर दिया । वरुण की मृत्यु के बाद देवलोक में इन्द्र ही की सत्ता सार्वभौम हो गई थी । ऋषि आर्य और देव इनकी उपजातियां , जो भी सिन्धु और सतलज की घाटियों में फैल गई थीं , सभी इन्द्र के प्रभाव में थीं । प्रत्येक आर्य सम्राट को इन्द्र और देवों को यज्ञभाग की बलि देने पर ही सम्राट या महाराज की पदवी मिल सकती थी । यह वास्तव में एक भारी टैक्स था जो इस पदवी के लिए लिया दिया जाता था । उन दिनों विवाह तथा विशेष यज्ञों में गाय -बैलों का वध होता था । यह परिषाटी आर्यों और देवों में समान भाव से थी । इस समय आर्यों की अनेक शाखाएं भारत आर्यावर्त तथा उसके बाहरी कोणों में फैली हुई थी , जिसमें सबसे अधिक प्रमुखता ययाति के पांच पुत्रों यदु, तुर्वशु, अनु , द्रुह्य और पुरु की थी । इनके अतिरिक्त अन्य जातियों में गान्धार, मूज - वन्त , मत्स्य , भरत , भृगु , उशीनर , चेदि , क्रिवि , पांचाल , कुरु , सृज्य , परावत आदि शाखाएं भी प्रधान थीं । तृत्सु रावी के पूर्वी किनारे पर थे। भरत मध्य भारत में थे। पुरुवंशी दुष्यन्त के वंशज भारत तथा स्वायंभुव भरत के वंशज मुनर्भरत कहाते थे। आगे भारतों को कौरव भी कहा गया । उशीनर , चेदि , मत्स्य , सृज्य का वंश बहुत पीछे तक चलता रहा । मत्स्य वंश अत्यन्त प्राचीन है । इसका संकेत हमें मत्स्यपुराण से मिलता है । इस बात के अत्यंत पृष्ट प्रमाण हैं कि अत्यन्त प्राचीनकाल में बेबीलोन में मत्स्य नाम की एक जाति रहती थी , जिसने जल -प्रलय के समय मनु के परिवार की रक्षा की थी । भारत में मत्स्य लोग पूर्वी राजपूताना में आ बसे थे। उशीनर उत्तरीय भारत में रहते थे। बलिबन्धन के बाद आर्यों के राज्य मगध तक फैल गए थे। जिस समय रावण ने देवराट् इन्द्र पर अभियान किया, उस समय फारस से उत्तर
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