पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/२९७

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विश्व में दूसरा नहीं है। आपके दान और महत्ता की चर्चा सर्वत्र है। आपके सम्मुख आकर कोई याचक निराश नहीं लौटता । आप याचकों के लिए कल्पवृक्ष हैं आपके समान दाता पृथ्वी में कौन है ? आपने मेरा त्रिलोकी का राज्य छीन लिया है। अब मैं निराधार और निर्धन हूं। इसलिए हमारे और आपके पूज्य पुरुष इन विष्णु तथा देवप्रमुखों सहित मैं आपके पास याचक के रूप में आया हूं कि अधिक नहीं तो यज्ञभूमि - वेदिका ही हम लोगों को दे दीजिए ,जिससे हम देवों का भी कोई ठौर -ठिकाना हो तथा हमारी यज्ञ -विधि कायम रहे। " इस पर बलि ने प्रसन्न होकर कहा - “ देवेन्द्र , आप भले पधारे, आपका कल्याण हो । मेरे समान धन्य दूसरा कौन है कि मैं त्रिभुवन की राजलक्ष्मी से सम्पन्न होकर देवराट् इन्द्र और भगवान् विष्णु को याचक के रूप में अपने घर आया देखता हूं । घर पर आए हुए इन्द्र को तो मैं अपनी स्त्री , पुत्र , महल तथा अपने को भी दे डालूंगा । आप धर्म और न्याय से जो मांगें - मैं दूंगा । " इस पर इन्द्र ने विनयावनत होकर कहा - “ हे दैत्यपति , इस समय तो आप ही देवों की रक्षा और पोषण कर सकते हैं । अन्तत : वे भी तो आपके दायाद बान्धव ही हैं । बारह आदित्य , ग्यारह रुद्र, आठ वसु , अश्विनीकुमार और पितृजन सभी आपके बाहुबल का आश्रय चाह रहे हैं । आप सर्वसमर्थ हैं सो जैसे दैत्यों- दानवों का आप धर्मपूर्वक शासन करते हैं , वैसे ही देवों का भी कीजिए। केवल जितने स्थान में हमारी यज्ञभूमि है, जहां- जहां हम अग्निस्थापन करें , वहीं भूमि दे दें । आप इतना ही अनुग्रह हम पर कीजिए, जिससे सब लोग कहें कि घर पर आए हुए , देवराट् इन्द्र और पितामह के मित्र विष्णु का आपने सत्कार कर लिया । ” तब दैत्येन्द्र ने उसी क्षण अंजलि में जल लेकर कहा - “ जहां- जहां यज्ञ - वेदी है, जहां जहां अग्निस्थापन है, जहां- जहां यज्ञ होता है , वह भूमि मैंने देवों को दी । ” दैत्येन्द्र का वचन सुन दैत्यगुरु शुक्र उशना ने क्रुद्ध होकर कहा - “ महाराज यह अनुचित है। मन्त्रियों से भली भांति विचार -विमर्श करके युक्तायुक्त का विचार किए बिना आप वचन मत दीजिए । ये देव दैत्यवंश- उच्छेदकर्ताहैं । ” इस पर दैत्येन्द्र ने कहा - “ मैंने धर्म के विचार से , न्याय के विचार से देवों को वचन दे दिया । मेरे दान से देव समृद्ध हों तो मैं धन्य हूं । मेरा वचन सत्य हो ! " इस पर क्रुद्ध हो दैत्यगुरु शुक्र ने तत्क्षण दैत्यलोक त्याग दिया और देवराट् तथा देवगण दैत्येन्द्र से वचन ले, विष्णु को आगे कर वन, नगर , जनपद में आग लगाने तथा ‘ यही हमारी यज्ञ - भूमि है कहकर आगे बढ़ने लगे। वे दल बांधकर आग लगाते जाते और – “विष्णुस्त्वा वसतामिति , यज्ञो वै विष्णः, स देवेभ्य इमा विक्रान्ति विचक्रमे। येषामियं विक्रान्तिरिदमेव प्रथमेन पदेन यस्याधस्तादिदमन्तविक्रान्ति विचक्रमे । येषामियं विक्रान्तिरदिमेव प्रथमेन पदेन यस्याधस्तादिदमन्तरिक्षं द्वितीयेन दिवमुत्तमेनत वैवैष एतस्मै विष्णुर्यज्ञो विक्रान्तिं विक्रमते । " इस प्रकार मन्त्रपाठ करते जाते थे। देवों के इस कार्य से दैत्य परेशान और भयभीत हो गए। विष्णु ने बलि से यह याचना की थी कि – अग्नि -रक्षायाम् , अर्थात् अग्निगृहों की रक्षा के लिए भूमि चाहिए। इसलिए उन्होंने समस्त वनों , नगरों और जनपदों को जलाकर खाक करना आरम्भ कर दिया । ज्यों - ज्यों अग्नि बढ़ती जाती , दैत्य पीछे हटते जाते थे और देव उस भूमि पर अपना अधिकार जमाते जाते थे, उस भूमि पर कृषि करते तथा बस्ती बसाते जाते थे। शुक्र के दैत्यलोक त्याग देने तथा देवों का ऐसा उत्पात मचाने से वचनबद्ध