पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

से निकला। उसका रंग बालारुण के समान असह्य रक्तवर्ण था और उसके विराट् शरीर का विस्तार एक योजन भूमि में था । उस महा भयानक सर्पराज को देखते ही बहुत - से देव , दैत्य भय से कांपते हुए मूर्छित हो गए । तब विजृम्भक नामक दैत्य साहस करके उसके निकट आ उसे पकड़ने लगा। इस पर सर्प ने जो फूत्कार किया तो वह महाबली सूखे पत्ते की भांति सौ हाथ दूर जा गिरा । इस पर अनेक देव , दैत्य , असुर , विक्रमशील , पुरुष एक साथ ही उसे पकड़ने को दौड़े । पर महानाग ने मुंह खोल वेग का एक श्वास लिया , जिससे खिंच-खिंचकर तीन योजन के पशु, पक्षी, प्राणी सभी उसके उदर में पहुंच गए। बहुत से देव , दैत्य , असुर भी उसके पेट में चले गए । शेष जन भयभीत हो इधर - उधर जा छिपे । महानाग सब देवों के मध्य बैठ यज्ञ - शाकल्य और बलि भक्षण करने लगा । अब नन्दी का संकेत पा , मेघनाद सर्प के निकट गया । सब देव , दैत्य , दानवराज यह देख धड़कते हृदय से इसका परिणाम देखने को आकुल हो उठे । पर मेघनाद ने देखते ही देखते एकबन्धकर्ण’ विद्या के द्वारा महानाग को पाश में बांध लिया । नाग बहुत छटपटाया , परन्तु उसकी मुक्ति न हुई । वह जितना बल लगाता , जकड़ता ही जाता था । अन्त में नाग का मुख बन्द हो गया और बारम्बार शिला पर सिर पटकने लगा । तब नन्दी का संकेत पा मेघनाद ने नाग का पेट चीर डाला, जिसमें से उसे तूणीर की उपलब्धि हुई। यह देव -दानव दैत्य - दुर्लभ अक्षय तूणीर पाकर मेघनाद अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसके विक्रम से प्रसन्न हो , सब देव , दैत्य , दानवों ने उस पर पुष्पवर्षा की । परन्तु कालचक्र - दैत्यों के अधिपति ने दूत भेजकर कहलाया कि प्राण बचाना चाहता है तो वह तूणीर हमें दे दे। इस पर मेघनाद ने हंसकर दूत से कहा - “ अरे दूत , अपने स्वामी से कह कि मेरे बाणों से उसका शरीर ही तूणीर हो जाएगा । " तूणीर सिद्ध होने पर नन्दी ने कहा - “ अब चल धनुष भी सिद्ध करें । ” यह कह , वे दोनों हेमकूट को उल्लंघन कर उसके उत्तर में मानसरोवर - तट पर जा पहुंचे। वहां कालचक्र दैत्य पहले ही से आ , वेदी रच, घृत और स्वर्ण- कमलों से हवन कर रहा था । मेघनाद ने भी वेदी रच , घृत और स्वर्ण- कमलों से वेद- पाठ कर हवन करना आरम्भ कर दिया । तब नन्दी ने कहा - “ हे वीर, यहां से उत्तर में कीचक नामक बांसों का वन है । उसमें भयानक सर्प रहते हैं जिनके कारण कोई वहां पहुंच नहीं सकता। जो पहुंचता है -पीछे लौटता नहीं है। तू साहस करे तो जा और धनुष के उपयुक्त बांस काट ला । बांस काटकर इस सरोवर में छोड़ दे तो वे दिव्य धनुष बन जाएंगे । ” मेघनाद ने साहस करके कीचक - वन में प्रवेश किया और सात दिन तक सों का संहार करता रहा । अन्त में उपयुक्त बांस काट मानसरोवर में छोड़ दिया । यथासमय उसे एक दिव्य धनुष प्राप्त हो गया , जिसे ले वह कालचक्र दैत्य के सम्मुख आया और कहा - " हे दैत्येन्द्र, तुमने मुझसे युद्ध -याचना की थी और मैंने भी युद्ध-वचन दिया था । आओ अब दोनों के मनोरथ पूर्ण हो जाएं । ” यह सुन कालचक्र दैत्य ने क्रुद्ध हो बाणों की वर्षा से मेघनाद को छा लिया । दोनों वीरों में विकट युद्ध हुआ और भांति - भांति के शस्त्रास्त्रों का प्रयोग - संहार हुआ । अन्त में मेघनाद ने कालचक्र दैत्य का सिर काट लिया । उसके मरने पर सब दैत्यों ने मेघनाद की अधीनता स्वीकार कर उसकी पूजा की । इस प्रकार सब भांति कृतमनोरथ हो मेघनाद दिव्य विभूतियों से विभूषित हुआ ।