तब नन्दी ने कहा - “ हे रावणि, भगवान् भूतनाथ देवाधिदेव रुद्र की तुझ पर कृपा है । उनके प्रसाद से तू विश्वपति बन गया ; अब तो तू अपने पिता त्रैलोक्यपति रावण को भी जय कर सकता है। फिर अब विलम्ब का क्या प्रयोजन है ? जा , लंका में अपना ऐन्द्राभिषेक कराकर इन्द्रमोचन कर और पृथ्वी के सब भोगों को भोग ! ” । नन्दी के ये वचन सुन मेघनाद ने कैलास की ओर मुख करके कैलासपति पुरुष को भूमि पर गिर प्रणिपात किया, फिर शिवकिंकर नन्दी की अभिवन्दना कर कामचारी महापद्म विमान पर चढ़ लंका की ओर उड़ चला - मन की गति से । मेघनाद का लंका में भव्य स्वागत हुआ । देवाधिदेव का प्रसाद रावण को भा गया । उसने तत्क्षण पुत्र मेघनाद के ऐन्द्राभिषेक की घोषणा कर दी । देश - देशान्तरों में दूत भेज , बन्धु- बान्धव , नर , नाग , देव , दैत्य , दानव सभी को बुला भेजा। महिदेव , जगज्जयी रक्षपति का संदेश पा भू -मण्डल के नृवंश, नरपति अपने दलबल लेकर लंका आने लगे । भीड़भाड़ और धूमधाम ऐसी बढ़ी कि रात -दिन में भेद न रहा । लंका के राक्षस अतिथि - सत्कार करके सब आगत - समागतों को प्रसन्न करने लगे । महिदेव रावण ने सभी की सुख - सुविधा का पूरा विचार रखा। वाद्यों की तुमुल ध्वनि से दिशाएं व्याप्त हो उठीं । सुगन्ध -द्रव्यों की हवन से सौ योजन का वातावरण सुरभित हो उठा । अनेक प्रकार के भक्ष्य , भोज्य , लेह्य, चूष्य , पानक तैयार करने में सहस्रों सूदक जुट गए । विविध प्रकार के लाव, तित्तिर , कपोत , शूकर , मृग , महिष , अज मार - मारकर स्वादिष्ट पाक तैयार होने लगे । सुगन्धित मदिराओं की नदी लंका में बहने लगी । इस समारोह में प्रथम बार ही लंका में देव , दैत्य , नाग , असुर , यक्ष , गन्धर्व, आर्य, व्रात्य , नर सभी जातियों के मूर्धन्य पुरुष एकत्रित हुए । किसी को किसी भांति की असुविधा न हो , इसका पूरा ध्यान रखा गया । इसी अवसर पर पृथ्वी - भर में सार्वभौम महातेज बाण भी लंका में महाप्रतिष्ठ हुआ । समारोह का नेतृत्व किया रावण ने । महिदेव की प्रतिष्ठा - भूमि से आगत - समागत भू - मण्डल के देव , दैत्य , नाग , दानव, मानवों के प्रतिनिधियों ने अपना दास- भाव प्रकट करने के लिए समारोह में सेवाएं प्रदान की । बारहों आदित्यों के प्रतिनिधियों के बीच देवराट् इन्द्र ने सप्त समुद्रों , सप्त तीर्थों, सप्त महाकूपों का जल मणि - कलश में भर मेघनाद के मूर्धा पर अभिषेक किया । सप्त - द्वीपपतियों ने उसकी पीठ के पीछे खड़े होकर उसके मस्तक पर छत्र लगाया । नृवंश के सात सौ नरपतियों ने अतिरथी मेघनाद के रथ के अश्वों की वल्गु पकड़ रथ हांका । इसके बाद लोक - लोक के आगत - समागत लक्ष- लक्ष नृवंश के प्रतिनिधियों ने महिदेव , सप्तद्वीपपति , सर्वजयी रावण और इन्द्रदमन करने वाले अतिरथी मेघनाद मृत्युंजय का जयघोष किया । उस जयघोष से पृथ्वी की दिशाएं कम्पित हो गईं । भूलोक चलायमान हो गया । समारोह की समाप्ति पर महिदेव ने अपनी सारी ही सम्पदा याचकों को लुटा दी । रावण ने ऐसा दान दिया कि किसी त्रिलोकपति ने नहीं दिया होगा । स्वर्ण, रत्न, मणि , माणिक , मुक्ता, कस्तूरी , अम्बर , केसर, कौषीतक , कौशेय , हर्म्य, सौध सभी कुछ महिदेव ने याचकों को दिया । फिर महातेज - महाप्रतिष्ठ पिता - पुत्र ने सब भांति सत्कृति कर सब सम्मान्य अतिथियों को विदा किया । सबके बाद सहस्र - भार रत्न , आभरण, सहस्र दिव्य हाथी और सहस्र कुमारिकाएं , दासियां देकर देवराट् इन्द्र को बन्धनमुक्त कर देवों - सहित
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