पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३०९

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हर्षित होती है। निस्संदेह यह मनोज - मनोरथ का ही प्रभाव है, सुरत -योग में तो जैसे दोनों का देह सायुज्य - रूप अद्वैत हो जाता है । इस हृदयाद्वैत भाव ही से दोनों रमणी और रमण भिन्न लिङ्ग और भिन्न शरीर- सम्पत्ति तथा भिन्न गुण होने पर भी तृष्णातिशय से , ऐक्याभिलाष से परस्पर अनुप्रवेश करते हैं । तब कौन रमण है, कौन रमणी है ? यह भेद अभेद हो जाता है । यह मेरा अंग - अवयव है, यह पराया वह भेद-बोध नष्ट हो जाता है । निर्व्याजरूपेण प्रिय के अंक में अर्पित वपुषा कामिनी की मिलन - रात्रि जैसे क्षण - भर ही में व्यतीत हो जाती है । रति - तृप्त प्रेम -विभोर हो युगल मिथुन सुलोचना और इन्द्रजयी मेघनाद ने जैसे अपने को जाना — दोनों ने प्रिय कान्त भाव से एक - दूसरे को देखा । मेघनाद ने कहा - “प्रिये , प्रियतमे , मैंने देवाधिदेव का चरम सान्निध्य प्राप्त किया , इन्द्र को दुर्धर्ष शक्ति से बन्धन में बांधा । कठिन दुरारोह, दुराचार , गुह्य विद्याएं और सिद्धि प्राप्त की , जिससे सम्पन्न होकर आज यह तुम्हारा दास मेघनाद पृथ्वी पर अजेय , अजर - अमर हो गया है । परन्तु यह सारी ऋद्धि, सिद्धि , सम्पदा , श्री जो मैंने अर्जित की और यह मेरा अमोघ व्यक्तित्व सभी तेरे सान्निय -सुख के सामने एक तिनके के समान नगण्य , तुच्छ , अपदार्थ हो गया । अरी प्राणवल्लभे, आज तुझे अपना यह देहभार अर्पण कर जैसे मैं कृतकृत्य हो गया । कह , इस तेरे अनुग्रह के बदले तुझे क्या दूं? अथवा कौन - सा तेरा प्रिय करूं ? मुझ इन्द्र - दमन के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। कुछ भी तो अदेय नहीं है। अथवा अधिक प्रलाप से क्या ? तू कहे तो मैं अपना प्राण ही तुझे अर्पण करूं । " प्रिय पति के ये कोमलकान्त वचन सुन अश्रुमती सुलोचना ने कहा - “ हे प्राण वल्लभ , अब मेरे लिए विश्व में मांगने को और क्या रह गया , जब मैंने अपने अंक में तुम्हें पा लिया ? अरे प्राण , तुमने तो मेरे रक्त के प्रत्येक कण को एक नया प्राण दे मेरे जीवन के प्रत्येक क्षण को प्राण से आपूर्यमाण कर दिया । तुम्हारे एक क्षण के सान्निध्य का मूल्य तो मेरा यह सारा जीवन भी नहीं है। तुमने जो मुझ दासी को सब भांति आज कृतार्थ किया , सो उसका वर्णन क्या वाणी से हो सकता है! पर मैं तो इसी भय से मरी जाती हूं कि कन्हीं अन्तरिक्ष के देवता -पितर मेरे सुख से ईर्ष्या न करने लगे । हे कान्त , अब तो यह मझसे कदापि न सहा जाएगा । हमारे हृदय एक हैं पर शरीर भिन्न हैं । क्या कोई ऐसा उपाय है कि मैं अपने इस शरीर को तुम्हारे अंग में लय करके अपना अस्तित्व खो दूं? अरे , अब मैं तेरा-मेरा तो सहन ही नहीं कर सकती। हे जगज्जयी , तूने मुझे भी जय कर लिया , अब मुझे इतना दूर क्यों रखा है, अपने में समा ले । ” सुलोचना के ऐसे आवेश और प्रेमोन्माद- भरे वचन सुनकर मेघनाद ने हंसते-हंसते उसे अंक में उठाकर वक्ष से लगा लिया । उसने कहा - “प्राणसखी, अब भला हम - तुम दो कहां हैं ? यह मेरा अंग तेरा और तेरा अंग मेरा है। हमारा हृदय एक है, प्राण एक है, केवल शरीर दो हैं , इसलिए कि हम इनके द्वारा एक - दूसरे को सहवास - सुख से आप्यायित करते रहें । फिर मेरी-तेरी आंखें हैं , इसलिए कि मैं तुझे देखू , तू मुझे। मेरे - तेरे कान हैं , जिससे मैं तेरी बीणा- झंकृत वाणी सुनूं , तू मेरा वचन सुने । मेरे - तेरे अन्य अंग - उपांग हैं कि जिनका लय विलय कर हम योगानन्द का चरम सुख अनुभव करें । अरी भोली, ये अंग ही सुखोपभोग का साधन है - यन्त्र है । यह न तेरा पृथक् अंग है, न यह मेरा पृथक् । हमारा दोनों का अंग अपूर्ण