था , परन्तु पतिवियुक्ता सीता को उस सब साज - शृंगार और सज्जा से कुछ भी प्रयोजन न था । वह हर्म्य का विलास - कक्ष छोड़ , उसी विशाल अशोक वृक्ष के नीचे उदास मलिन वेश में , अधोमुखी भूमि पर एक पर्णशय्या पर बैठी आंसू बहाती हुई शोक -चिन्ता और कातर भाव से विपन्न जीवन के कठिन क्षण व्यतीत कर रही थी । उसके सिर पर एक वेणी थी जो पृथ्वी तक लटक रही थी । उसकी दशा कुत्तों से घिरी हई असहाय मगी की - सी हो रही थी । यद्यपि उसके चन्द्रमुख की कान्ति से अब भी दिशाएं आलोकित हो रही थीं । उसके बिम्बफल के समान रक्तवर्ण अधर , क्षीण कटि - भाग और कमल- से बड़े- बड़े नयन तथा लाल -लाल चरण शोभा की खान थे, वह संयमशीला तपस्विनी की भांति पृथ्वी पर बैठी राम के ध्यान में मग्न रहती । शोकातुर होने के कारण उसकी शोभा मन्द पड़ गई थी और आभूषण -विहीन उसकी देहश्री फीकी हो गई थी । जो भी आभूषण वह इस समय अंग पर धारण किए थी , वे भी सब मैले हो गए थे। उसे न अपने अंग - संस्कार का विचार था , न वस्त्रों का । फिर भी इस विपन्नावस्था में उसका माधुर्य अपूर्व दीख रहा था । वह किसी भांति अपने शरीर को धारण किए हुए थी । जब सीता को अशोक वन में रहते कुछ समय व्यतीत हो गया , तो एक दिन भोर ही में रावण अपने स्त्री परिकर के साथ अशोक वन में पहुंचा। वह स्वर्ण-किरीट मस्तक पर धारण किए, स्वर्ण रथ पर , रथ की समस्त घंटियों को किंकिणित करता हुआ अपने हर्म्य से निकला। उसके पीछे सौ दासियों के हाथों में उसके सुख- द्रव्य थे। किसी के हाथ में ताड़ के पंखे, कोई सोने की झारी लिए सुखपाल में बैठी थी । एक स्त्री सोने के डंडेवाला प्रकाशमान छत्र लेकर रावण के पीछे हाथी पर बैठी थी । कुछ स्त्रियां जलते हुए गन्ध - द्रव्य लिए, विविध वाहनों पर सवार चल रही थीं । सवारी के आगे दुन्दुभि बजती जाती थी । रक्षेन्द्र की शरीर रक्षिका सेवा - दासियां गंध - माल्य विभूषण हाथों में ले झरमट बना रक्षेन्द्र के रथ को घेर पांव -प्यादा ही चल रही थीं । इस प्रकार जैसे नक्षत्रों से घिरा चन्द्रमा सुशोभित होता है , उसी प्रकार रक्षेन्द्र रावण इन रूपसी सुन्दरियों के झुरमुट में दुन्दुभि , नगाड़े बजवाता हुआ अशोक वन पहुंचा। अशोक वन में पहुंचते ही भेरी और तूर्य बज उठे । सब चेरियां -प्रहरी , गुल्मपति यथास्थान चैतन्य हो गए । सभी ने जान लिया कि महाबली पृथ्वीजयी रक्षेन्द्र रावण का अशोक वन में आगमन हो रहा है । सौध हर्म्य में जाकर रावण की सवारी महल की पौर में प्रविष्ट हुई । परंतप रक्षेन्द्र को आता देख सीता वायुवेग से कम्पित केले के पत्ते के समान कांपने लगी । उसने अपने अंगों को अपने ही में समेट लिया और अत्यन्त संकुचित हो , भय और शोकातिरेक से अभिभूत हो पृथ्वी पर बैठी रह गई । रावण ने देखा - सीता के सब अंग मलिन हो रहे हैं । वह बहुत ही दुर्बल हो गई है। निरन्तर रोते रहने से उसके नेत्र सूजकर लाल हो गए हैं । वह मूर्तिमती दु: ख की प्रतिमा सी दीख रही है । उसने सोचा - अहो , यह श्रेष्ठ कुल की महिला है, पर दु: ख और शोक से निकृष्ट कुलोत्पन्न - सी दीख रही है। वह नष्टप्राय यश, निरादृत श्रद्धा, टूटी हुई आशा, तिरस्कृत आभा तथा अन्धकाराच्छन्न प्रभा, विधि - रहित पूजा और जलरहित नदी के समान हो रही है । निरन्तर उपवास , शोक और भय के कारण यह अतिकृश हो गई है। यह नाममात्र का आहार करती है , तप ही इसका जीवन है । दु: ख ही इसका धन है ।
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