पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रावण ने उसके सम्मुख पहुंचकर कहा “ प्रसीद! प्रसीद ! भगवति सीते ! इतना शोक न कर , अतीत की चिन्ता से क्या लाभ होगा अब ? मैं तेरा अनुगत रक्षपति रावण तेरी प्रसन्नता और अनुकूलता चाहता हूं। पर तू इस तरह अपने अंगों को समेटे क्यों बैठी है ? क्या तू अपने को नष्ट कर देना चाहती है ? है जनकनन्दिनी , मैं भी तेरे ही समान वरिष्ठ कुल का हूं । तुझे वैरी की पत्नी जानकर भी मैंने तुझ पर बलात्कार नहीं किया । मैं तुझे अपने पर प्रसन्न देखना चाहता हूं । तनिक नेत्र उघाड़कर देख - यह स्वर्णलंका, इसका सब वैभव और यह लंकापति रावण , जिसके नाम से देव , दैत्य , नाग , यक्ष कांपते हैं , तेरी कृपा - कोर का भिक्षुक यहां उपस्थित है । अब उस भिखारी राम से तेरा क्या प्रयोजन है ? वह राज्यभ्रष्ट तो प्रथम ही हो चुका । अब विनष्टगृह हतभाग्य मारा -मारा वन में फिरता होगा । फिर तुझे भय क्या है ? वैरियों की पराई स्त्रियों को हरण कर लाना और उनके सहवास का सुख भोगना हम राक्षसों की परिपाटी है । पर तेरे साथ मैं बलात्कार तो दूर , तेरा अंग -स्पर्श भी तेरी अनुमति बिना नहीं करूंगा। इसलिए शोक त्याग दे, मुझ पर प्रसन्न हो और यहां लंका में सब देव - दुर्लभ भोगों को भोगती हुई , मेरे सम्पूर्ण अवरोध की शीर्षस्थानीय होकर रह । लोक - लोकान्तर से जो दुर्लभ रत्न मैंने प्राप्त किए हैं , वे सब और यह लंका का राज्य मैं तुझे ही सौंपता हूं । मेरे अधिकार से परे इस पृथ्वी पर जितने नगर हैं , उन सबको मैं अपने पराक्रम से जीतकर तेरे पिता जनक को दे दूंगा। हे सुन्दरी, मेरे समान योद्धा अब इस पृथ्वी पर कौन है ? देव , गन्धर्व, यक्ष, नाग , दैत्य , मानुष कोई भी तो मेरे सम्मुख खड़े रहने में समर्थ नहीं है । इसलिए उस एक चीर धारण करने वाले राज्यभ्रष्ट तापस राम को तू भूल जा । अब उसके तुझे दर्शन भी नहीं हो सकते । मेरे भवन में तीनों लोकों की उत्तम स्त्रियां हैं , वे सब तेरी सेवा करेंगी। स्वर्ग- लोक में , नरलोक में और पृथ्वी पर जहां जितना धनरत्न है, जितना ऐश्वर्य है, उस सबका तू मेरे साथ रहकर भोग कर। वह बेचारा भिखारी राम न तो बल में , न ही धन और पराक्रम में मेरी समता कर सकता है, इसलिए तू यह जानकर - कि यह यौवन क्षणभंगुर है, इसका उपभोग मेरे साथ कर और जीवन के लोकोत्तर भोग भोग ! रावण के ऐसे वचन सुनकर सीता ने अपने और रावण के बीच एक तिनके की ओट करके कहा - “ महाराज लंकापति , आपकी जय हो । आप त्रिलोक के स्वामी और सब विद्याओं के भण्डार हैं । आपको ज्ञात है कि मैं वरिष्ठ कुल की कन्या और वधू हूं । उच्च कुल में मेरा जन्म हुआ है और उच्च कुल ही में ब्याही गई हूं । मैं आर्य कुलवधू हूं। फिर भला मैं लोकनिन्दित आचरण कैसे कर सकती हूं । आप सद्धर्म का विचार कीजिए और सज्जनों के मार्ग का अनुसरण कीजिए। आप रक्षपति हैं । ‘ वयं रक्षाम : आपका व्रत है। आपको सर्वप्रथम स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए। आपके अवरोध में त्रैलोक्य से लाई हुई बहुत सुन्दरियां हैं , आपको उन्हीं पर सन्तुष्ट रहना चाहिए । हे रथीन्द्र , जिन पुरुषों का मन चंचल रहता है उनका अपमान -पराभव भी उसी के द्वारा होता है । क्या आपको सत्परामर्श देने वाले सत्पुरुष मन्त्री नहीं हैं अथवा आपकी विपरीत बुद्धि ही उनका सत्परामर्श नहीं ग्रहण करती ? कहीं ऐसा न हो कि आपके ही अपराध से धन - धान्य से परिपूर्ण लंकापुरी नष्ट हो जाए। हे रक्षेन्द्र, जैसे सूर्य से उसकी प्रभा भिन्न नहीं है, उसी प्रकार मैं भी राम से भिन्न नहीं हूं। मैं उन्हीं की भार्या हूं, आपके सर्वथा अयोग्य हूं। आपका श्रेय इसी में है कि आप मुझे