पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३१५

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अनुराग की याचना देव - दैत्य -विजयी रक्षेन्द्र स्वयं करते हैं , उस स्त्री के सौभाग्य की तुलना क्या है? अरे , इन्द्र को जिसने बन्दी बनाया , जब वह हजारों देव - दैत्य - दुर्लभ रमणियों से भरे अन्त: पुर को छोड़ तेरे पास आता है तो फिर तेरी समता पृथ्वी पर कौन स्त्री कर सकती है ? " दुर्मुखी ने कहा - “ अरी, जिनके प्रताप के आगे सूर्य भी अपना तपना त्याग देता है, उन्हीं रक्षेन्द्र का तू तिरस्कार करती है! तू सौभाग्य को लात मार दुर्भाग्य का वरण करती है! यह भला तेरी कैसी बुद्धि है ? " ___ एकजटा ने कहा - “ संसार का ऐसा कौन - सा सुख-साधन है, जो रावण के हर्म्य में नहीं । अरे, वह तो त्रिलोकपति है, उसके ऐश्वर्य की तुलना पृथ्वी पर भला कौन कर सकता है? तू भिक्षुक राम के पुराने अनुराग का विचार कर राक्षसराज का तिरस्कार कर रही है! अरी, राम तो स्वयं ही दुखी है। वह तुझे कैसे सुखी रखेगा ? अब तो उसकी आशा ही छोड़ । त्रैलोक्य में आज ऐसा कौन है, जो दुर्लंघ्य समुद्र मेखला को लांघकर यहां आकर तेरी सुध ले ? " एक राक्षसी ने कहा - “मैं तो यही नहीं समझ सकती कि उस कृपण राम के साथ रहकर तू क्या करेगी! फिर वह समुद्र -पार आने का साहस भी भला कैसे करेगा ? " चण्डोदरी ने कहा - “ अरी, क्यों इस कुरूपा के साथ माथा खपाती हो ! ऐसी स्त्रियों का तो अन्त में वध ही होता है। इसके शरीर का मध्य भाग मुझे ही मिलेगा। " __ " और कलेजा मुझे। " ___ " तो जाओ, एक भाण्ड मद्य उठा लाओ। हम इसे काट - काटकर खा जाएं और मद्य पीकर आनन्द करें। " “ अभी नहीं , रक्षेन्द्र ने इसे अवधि दी है। उसे पूरा होने दो, फिर तो हमीं इसका स्वादिष्ट मांस खाएंगी। " सीता ने इस पर नेत्रों में जल भरकर कहा - “ सखियो, अवधि की इसमें क्या बात है, तुम अनुग्रह करके अभी क्यों न मेरा भक्षण करके इस दु: ख से मेरा परित्राण कर दो । हाय , मैं बड़ी ही अनार्या और असती हूं। मुझे धिक्कार है, जो मैं आर्यपुत्र से पृथक् होकर भी अभी तक जीवित हूं। जाओ-जाओ, रक्षेन्द्र को तो मैं अपने बाएं पैर के अंगूठे से भी नहीं छू सकती। समुद्र से घिरी होने से क्या ? आर्यपुत्र क्या मेरी टोह लगाने यहां तक न पहुंचेंगे ? क्या गृध्रराज जटायु ने उन्हें मेरी सूचना न दी होगी ? क्या वे वीर सूचना देने से पूर्व ही गतप्राण हो गए होंगे ? यदि आर्यपुत्र को मेरे यहां रहने का पता लगा गया तो वे समुद्र को भस्म कर देंगे। संसार को राक्षसों से विहीन कर देंगे । आज जैसे मैं क्रन्दन करती हूं , उसी प्रकार लंका में एक दिन घर - घर यही करुण क्रन्दन सुनाई पड़ेगा। लंका में रक्त की धारा बह जाएगी तथा यह पुरी श्मशान बन जाएगी । आज तुम सब यहां विजयोत्सव मना रही हो , पर वह दिन भी आएगा जब इस नगरी की श्री विधवा के समान हो जाएगी और जो मेरे शोक में उन्होंने प्राण ही दे दिए हों , तो फिर अब मुझे जीवन से क्या प्रयोजन है ! हाय , वे वीतराग जन ही धन्य हैं , जिनका संसार की किसी भी वस्तु पर मोह नहीं है , जिनका कोई प्रिय - अप्रिय नहीं है । मैं अपने प्रियतम से बिछड़ गई हूं और लंकापति रक्षेन्द्र के पल्ले पड़ गई हूं। सो अब मेरे जीवन से क्या ? मैं तो अब प्राण ही दूंगी । "