सीता के ऐसे पति - प्रेम - पगे वचन सुनकर त्रिजटा राक्षसी ने कहा - “ यह तो अत्यन्त आश्चर्यजनक और अद्भुत बात मैं देख रही हूं । जो यह स्त्री एक पुरुष पर ऐसा उत्कट मोह और आसक्ति प्रकट कर रही है । ऐसी तो देव , दैत्य , मानुष , आर्य, राक्षस कहीं भी मर्यादा नहीं है । दैत्य , दानव, देव , नाग और मरुतों में तो पति - परम्रा ही कुछ ऐसी नहीं है । स्त्री स्वतन्त्र है , आत्मोन्मुख है, पति से उस का क्या प्रयोजन है! वह तो उससे तनिक भी अनुबन्धित नहीं है, वह जिस भी प्रिय पुरुष को चाहे , उसे ही अपने लिए वर सकती है । ऐसा ही कुछ हम राक्षसों में , गन्धों में और यक्षों में भी है । हम लोग पति - पत्नी में सम सखाभाव मानते हैं सही, परन्तु ऐसा नहीं, जैसा यह स्त्री एक पुरुष के लिए ऐसी उन्मुख है । फिर आर्यों में तो ऐसी स्त्री दासी है, अवरोधिता है, अनुगता - अनुगामिनी है। पुरुष उसका स्वामी है । फिर यह आर्या किस प्रकार उस स्वामी को इस प्रकार चाहती है; जो हो , इसका प्रेम तो स्तुत्य है । क्यों न एक स्त्री एक पुरुष को ही प्यार करे ? क्यों न एक स्त्री और एक पुरुष एकीभूत होकर न रहें ? क्यों न दोनों का प्राणों से प्राणों का विलयन हो । अहा - “ समापो हृदयानि नौ , मुझे यही प्रिय है । इस मानुषी की मैं अभ्यर्थना करती हूं , वन्दना करती हूं, इसका पुरुष -प्रेम धन्य है, श्लाघ्य है, हमें इस पर क्रोध , इससे विराग न करना चाहिए । हम इसकी रक्षिकाएं हैं , इसे डराने - धमकाने से हमारा क्या प्रयोजन है? रक्षेन्द्र से निवेदन करूंगी। इस स्त्री से भी मैं कहती हूं - “ आर्ये, तू निश्चिन्त रह, अपनी शक्ति भर हम सब तेरा प्रिय करेंगी, तेरा कल्याण हो ! तू अपना प्रिय हमसे कह ! " त्रिजटा राक्षसी के ये वचन सुन सीता आश्वस्त हुई । उसने कहा - "भद्रे, मैं तेरा अनुग्रह स्वीकार करती हूं । इस रक्षपुरी में तू ही मेरी प्राणसखी है । मैं आज विपन्न हूं , परन्तु दैव -विधि से यदि सम्पन्न हुई तो तेरे इन शब्दों को याद रखूगी । " इतना कह सीता नीचे मुखकर मौन हो बैठी ।
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