है । मुझे इस समय सीता - हरण का उतना दु: ख नहीं , जितना जटायु - मरण का है। जाओ भाई, अब तुम विलम्ब न करो । लकड़ी एकत्र करो, मैं तब तक अग्नि निकालता हूं । मैं विधिपूर्वक बान्धवों की भांति जटायु का दाह- संस्कार करूंगा। ” । उन्होंने विधिवत् जटायु का दाह- संस्कार किया । फिर मृगों को मार, पृथ्वी पर कुश बिछा, मृग - मांस कोमल घास पर रख , उससे गृध्रराज का श्राद्ध-तर्पण किया ।फिर गोदावरी तट पर जा उसे जलांजलि दी । इस प्रकार वृद्ध जटायु का ऋषि के समान सत्कार कर राम बोले - “ हे भाई, अब शून्यागार में जाने से हमारा क्या प्रयोजन है ? अब तो हमें सीता का अन्वेषण कर उसका उद्धार करना है । ” फिर उन्होंने कहा - “ हे भगवती गोदावरी , कहो , क्या तुमने सीता को देखा है ? क्यों भाई, यह गोदावरी तो कुछ भी जवाब नहीं देती ! कहो , अब मैं राजा जनक से मिलने पर , जब वे जानकी का कुशल पूछेगे, तो क्या जवाब दूंगा ? अरे, मेरे साथ राज्यहीन होकर , वन में जंगली फल - मूल खाकर , जो मेरे दु: ख के समय मेरे सब दु: खों को हरती थी , वह जनक - दुलारी अब कहां चली गई? बन्धु -बान्धवों से तो मेरा वियोग ही हो गया था ... अब सीता से भी वंचित होना पड़ा । चलो भाई, मन्दाकिनी -तट , जन -स्थान और प्रस्रवण पर्वत पर चलकर खोज करें । कहां ले गया वह राक्षस उसे ? ये वन के मृग मेरी ओर आंखें उठाए क्या देख रहे हैं ? क्या ये कुछ मुझसे कहना चाहते हैं ? क्या ये सीता का कुछ पता जानते हैं ? " ___ लक्ष्मण ने कहा - “ आर्य, तात जटायु ने दक्षिण ही की ओर संकेत किया था । हम दक्षिण की ओर ही चलें तो ठीक होगा । उन्होंने तब भूमि पर गिरे हुए उन पुष्पों को देखा, जो सीता के केशों से झड़ गए थे । तब राम ने कहा - “ लक्ष्मण , इन फूलों को मैं पहचान गया । ये पुष्प आज प्रात : मैंने ही उसे दिए थे। मेरे ही सामने उसने इन्हें चोटी में गूंथा था । ” फिर वे पर्वतों की ओर मुख करके जोर -जोर से कहने लगे – “ अरे पर्वतो , कहो, सीता कहां है ? नहीं बोलोगे तो अपने अग्निबाणों से मैं तुम्हें भस्म कर दूंगा। गोदावरी का जल भी सुखा डालूंगा । " इसी समय लक्ष्मण ने कुछ धुंघरू पृथ्वी पर से उठाकर कहा, “ यह देखिए आर्य, ये धुंघरू टूटे पड़े हैं , ये फूल -मालाएं भी दली -मली पड़ी हैं । इधर- उधर भूमि पर रक्त भी बहुत पड़ा है। कहीं वह दुर्दान्त राक्षस आर्या को खा तो नहीं गया ? परन्तु यह टूटा हुआ विशाल धनुष किसका है ? ये बड़े-बड़े मोती , टूटा हुआ स्वर्ण कवच? अहा, यहीं तो तात जटायु का उस राक्षस से युद्ध हुआ है। यह देखिए, स्वर्ण-पंख विभूषित बाण भी यहां टूटे पड़े हैं । अवश्य ही वह राक्षस कोई सम्पन्न और बली प्रतीत होता है । वह अवश्य ही खर - दूषण का प्रतिकार लेने आया होगा । महाराज, हमने तो समझा था , जनस्थान से राक्षसों का पातक ही कट गया , परन्तु यह तो महापातक उठ खड़ा हुआ । ” । राम ने कहा - “ हे लक्ष्मण, सीता हरी गई, मारी गई या खा ली गई , जो कुछ भी हो , अब तो राक्षसों से मेरा वैर सौ गुणा बढ़ गया । मैं पृथ्वी से राक्षसों के वंश को ही अब निर्मूल करूंगा। अरे , देव , दैत्य , गन्धर्व, असुर , किन्नर, राक्षस जो भी वह तस्कर हो , जीवित न रहेगा। मैंने उसे देखा है , वह धूर्त तपस्वी का भेष धरकर मेरा अर्घ्य-पाद्य ग्रहण कर गया । उस वंचक ने मुझे ठग लिया । मैं वृक्षों को उखाड़कर समुद्र को पाट दूंगा । जो सीता न मिली तो त्रैलोक्य को नष्ट कर डालूंगा । सीता हरी गई या मारी गई , जो कुछ भी हो , मैं त्रैलोक्य से
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