पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३१७

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87 . हा सीते ! मारीच को मार जब राम पीछे लौटे तो उनके सम्मुख आ एक सियार ने मुंह उठाकर विकट रोदन किया । इस अपशकुन से आतंकित - आशंकित हो राम जल्दी - जल्दी आश्रम की ओर आने लगे । राह में उन्हें भगवान् अगस्त्य के आश्रम से लौटते हुए लक्ष्मण मिले । उन्होंने कहा - “ आर्य, आप भगवती सीता को अकेली छोड़ इधर कहां से आ रहे हैं ? " राम ने कहा - "मैं एक राक्षस के माया - जाल में फंस गया था । देखो, वह सियार ऊपर मुंह उठाकर कैसा विकट शब्द कर रहा है! जल्दी चलो , लक्ष्मण, कहीं अमंगल न हो गया हो । " दोनों भाई द्रुत गति से लौट चले । आश्रम के निकट आने पर उन्होंने जटायु के आश्रम में बहत - से तपस्वियों की भीड़ देखी । तपस्वीजनों ने उन्हें सीता- हरण का दारुण संवाद कह सुनाया । राम ने रक्त में सने हुए जटायु को देखा। जटायु ने ऊध्व श्वास लेते हुए और मुख से रक्त - वमन करते हुए क्षीण स्वर से कहा - “ आयुष्मान् तेरी सीता और मेरे प्राणों को एक बलवान् तस्कर राक्षस हर ले गया । मैंने शक्ति भर विरोध किया । मेरा पुराना पुरुषार्थ काम न आया ; परन्तु मैंने अपने मित्र दशरथ का सख्य पालन किया । मेरा उस राक्षस से घनघोर युद्ध हुआ। वह देखो , उसका छत्र - धनुष टूटा पड़ा है, पर मैं निश्शस्त्र था । जब मैंने भगवती सीता का चीत्कार सुना - मैं सो रहा था । चीत्कार सुनते ही मैं भागा। शस्त्र लेने का अवकाश न मिला। उस पतित दुरात्मा ने मुझ निरस्त्र की यह दुर्दशा कर दी । मैं कुछ भी न कर सका। वह हा दाशरथि , हा आर्य - पत्र , हा सौमित्र पुकारती हई स्नुषा सीता को बलात् रथ में बैठाकर इसी दक्षिण दिशा को गया है। हे राम, उसके पास वायुवेगी अश्वतरी का रथ है । उसमें आठ अश्वतरी जुड़ी हैं । तुम कैसे एकाकी पांव- प्यादे उसे पा सकोगे ? मैं तो अब उस लोक को चला ; रामभद्र तेरा कल्याण हो ! इतना कहकर जटायु ने रक्त - वमन कर प्राण त्याग दिए। जटायु के ये मर्म - बेधी वचन सुन और जटायु का गतप्राण शरीर देख राम आंसू बहाते हुए जटायु से लिपट गए। लक्ष्मण- सहित वे रो पड़े । वे लक्ष्मण और सब तपस्वियों से कहने लगे - “मैं ऐसा पापी हूं , जिसके कारण कोसल का राज्य नष्ट हुआ , पिता का स्वर्गवास हुआ, सीता का हरण हुआ और अब महाबली गिद्धराज जटायु के भी प्राणों का गाहक मैं ही बना। आज यदि मैं समुद्र में तैरने की चेष्टा करूं , तो समुद्र भी सूख जाएगा। मेरे समान भाग्यहीन पृथ्वी पर और कौन होगा जिसके कारण मेरे पितातुल्य आर्य जटायु मृतक होकर भूमि पर पड़े हैं । ” इसके बाद वे जटायु के शरीर को अंक में भरकर आर्तनाद - सा करते हुए बारम्बार कहने लगे - “ हे तात , मेरी सीता कहां है? ” फिर वे दु: ख से हतचेत हो भूमि पर गिर पड़े । कुछ काल बाद उन्होंने चेत में आकर कहा - “ हे लक्ष्मण, कैसे संताप की बात है कि आर्य जटायु सीता की रक्षा करते हुए हतप्राण हुए। सज्जनों का संसार में कहीं अभाव नहीं