89. सीता की खोज में किष्किन्धा में सुग्रीव का राज्य हो गया और राम प्रस्रवण गिरिशृंग पर रहने लगे। वर्षा ऋतु आ गई थी । इसलिए अभी कुछ भी नहीं हो सकता था । प्रस्रवण पर्वत बड़ा ही मनोरम था । पर्वत पर सफेद और काले पत्थरों की चट्टानें थीं । अनेक प्रकार की खनिज धातुएं भी बहुत थीं । सरोवरों में बड़े- बड़े कमल खिले थे। वन - विहंग ठौर - ठौर चहचहाते थे। निर्मल जल के अनेक झरने झर रहे थे। इस समय प्रस्रवण पर अनेक तपस्वीजनों के आश्रम ग्राम थे। वहां चन्दन के बहुत वृक्ष थे। उस मलय -मारुत से वह स्थान निरन्तर सुरभित रहता था । किष्किन्धा वहां से निकट ही थी । वर्षा ऋतु बीत गई । शारदीय शोभा ने दिशाओं को उज्ज्वल कर दिया । राम ने लक्ष्मण से कहा - “ लक्ष्मण , सुग्रीव तो राज्य और स्त्री पाकर उन्हीं में रम रहा है तथा मेरे कार्यों को भूल गया है। मैं राज्य से भी निकाला गया और मेरी स्त्री का भी अपहरण हुआ । मार्ग दुर्गम है । न जाने कौन दुष्ट चोर वैदेही को चुरा ले गया है । वह जीवित भी है या नहीं । अब मेरा धैर्य जवाब दे रहा है । मैं कब तक प्रतीक्षा करूं ? मेरे अयोध्या जाने पर जनसमुदाय उमड़ पड़ेगा, तो सीता के न रहने से मैं उन्हें क्या जवाब दूंगा ! ये वर्षा के चार मास मुझे सौ वर्ष के समान व्यतीत हुए हैं । मुझ राज्यभ्रष्ट को , जिसकी पत्नी हर ली गई है, सुग्रीव ने भी अनाथ के भांति भुला दिया । यह उसका विश्वासघात है । अपना काम बनाकर वह मूर्ख रनवास में आनन्द कर रहा है । क्या उसने अपना ही काम सिद्ध करने के लिए मुझसे मित्रता की थी ? उसने तो वर्षा समाप्त होते ही सीता की खोज का वचन दिया था । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वह कामान्ध अब वह बात भूल गया है । वह मन्त्रियों सहित भयानक काम कर रहा है। तुम जाकर उसके कर्तव्य को स्मरण करा दो और कह दो कि कहीं उसकी भी बालि जैसी दशा न हो । ” ___ लक्ष्मण ने किष्किन्धा पहुंचकर अपने आने की सूचना सुग्रीव को भेजी। परन्तु सुग्रीव को अन्त : पुर में सूचना पहुंचाई ही नहीं गई। तब लक्ष्मण ने धनुष पर बाण चढ़ाकर क्रोधपूर्वक अंगद से कहा - “ अरे अंगद, जाकर अपने राजा सुग्रीव से कह कि सौमित्र लक्ष्मण राजद्वार पर उपस्थित हैं , इच्छा हो तो आकर भेंट करें या फिर मैं दूसरा उपाय करूं । " लक्ष्मण के ये क्रोधपूर्ण वचन सुनकर अंगद स्वयं सुग्रीव को सूचना देने गया । पर वह मद्य पीकर बेहोश पड़ा था । तब अंगद ने अपनी माता तारा से लक्ष्मण के क्रुद्ध होने तथा द्वार पर उपस्थित होने की बात कही। किष्किन्धा नगरी बड़ी भव्य थी । उसमें सुग्रीव का राजभवन पर्वत जैसा ऊंचा था । उसमें बहुत - से गवाक्ष और द्वार थे, जिनमें स्वच्छन्द पवन प्रवाहित हो रही थी । लक्ष्मण धड़धड़ाते हुए महल में घुस गए। उन्हें इस प्रकार आते देख अन्त : पुर की स्त्रियां घबराकर भागने लगीं । इसी समय तारा ने सम्मुख आकर लक्ष्मण को प्रणाम किया । मद्यपान तथा
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