पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३३०

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ठान बैठे हो ? तुम मेरे छोटे भाई जटायु के सम्बन्ध में कुछ कह रहे थे! अब मेरे भाई का प्रिय - अप्रिय जैसा भी संदेश हो , कहो। किसने मेरे भाई जटायु के मरण की बात कही है ? उसे सुनकर तो मेरे प्राण ही कांप गए हैं दीर्घकाल से मैंने अपने भाई का समाचार ही नहीं सुना है । भाई जटायु मुझसे छोटा , गुणज्ञ और पराक्रमी था । वह प्रसिद्ध पुरुष था , उसका नाम सुनकर मुझे प्रसन्नता हुई है । परन्तु तुमने कहा कि जनस्थान में किसी दुष्ट ने उसका नाश कर डाला है। यह दारुण घटना कैसे हुई, इसका सविस्तार वर्णन मुझसे मित्र की भांति करो। ” सम्पाति के ये वचन सुन वानरों का भय दूर हुआ । उन्होंने सम्पाति को पर्वत से उतारकर पास बैठाया । तब युवराज अंगद ने कहा - “ हे गृध्रराज , वानरों के राजा अत्यन्त प्रतापी ऋक्षराज मेरे पितामह थे। उनके दो पुत्र बालि और सुग्रीव हुए । मैं परम तेजस्वी राजा बालि का पुत्र अंगद हूं । कुछ वर्ष पूर्व परम वीर दशरथात्मज श्री राम अपने पिता के आदेश से धर्म -मार्ग का आश्रय ले दण्डकारण्य में आए। उनके साथ उनके छोटे भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता भी थी , जनस्थान से कोई दुर्दान्त राक्षस उनकी पत्नी को बलपूर्वक हरण कर ले गया है। उस आततायी को महात्मा दशरथ के मित्र आपके भ्राता जटायु ने रोका था । उन्होंने नि : शस्त्र ही उस दुष्ट को रोका, उसका रथ नष्ट - भ्रष्ट कर दिया और सीता को भूमि पर लाकर सुरक्षित रख दिया । परन्तु वृद्ध जटायु निरस्त्र होने के कारण उस पतित के हाथों मारे गए । तब लौटकर और सब वृत्तान्त जानकर श्री राम ने अपने हाथों से आर्य जटायु का संस्कार - तर्पण ऋषिवत् किया । तदनन्तर उन्होंने महाराज सुग्रीव से मित्रता की तथा मेरे पिता बालि को मार सुग्रीव को वानरों का राजा बनाया । अब श्री राम की सहायतार्थ हम सब वानर देश - देशान्तरों में सीता की खोज में भटक रहे हैं । परन्तु अभी कुछ भी खोज नहीं हो पाई है । खोज की अवधि भी समाप्त हो चकी है । अब हम निराश हो प्राण देने पर सन्नद्ध हैं , क्योंकि वहां जाने पर भी हमारे प्राण नहीं बचेंगे । इसी से हमने मरण - यज्ञ करने का विचार किया है और उपवास - व्रत ले यहां समुद्र- तट पर बैठे हैं । " वानरों के ऐसे शोकपूर्ण वचन सुन सम्पाति साश्रुलोचन हो कहने लगे – “वत्स अंगद , उस चोर को मैं जानता हूं और मेरे भाई का वध करने के कारण अब वह मेरा भी वैरी है । परन्तु वह दुष्ट चोर साधारण पुरुष नहीं है । मैं दु:खित तथा अपंग हूं । अशक्त हूं। इस अभियान में मैं वृद्ध तुम्हारी अधिक सहायता करने में असमर्थ हूं । हां , तुम्हें उस चोर का पता बता सकता हूं। सुनो , मैं वरुणलोक से परिचित हूं। पहले वहीं हमारा निवास था । बलिबन्धन और वृत्र - वध मेरे सम्मुख ही हआ था । देवासुर -युद्ध में हम दोनों भाई - मैं और जटायु, युद्ध करते हुए सूर्य देव के निकट पहुंच गए थे। तब सूर्य के आक्रमण से भाई जटायु की रक्षा करते हुए मेरे दोनों पंख टूट गए थे । तभी से मैं अपने पुत्र के आश्रम में रहता हूं । अब मैं तुम्हें एक घटना सुनाता हूं। “ एक दिन मैं बहुत भूखा था । मेरा पुत्र मेरे लिए आखेट ढूंढ़ने गया था । प्रात :काल से सायंकाल तक मैं बाट देखता रहा , परन्तु वह नहीं लौटा । और जब लौटा तो खाली हाथ । उसको इस प्रकार देख , मैं भूख और क्रोध से व्याकुल हो खाली हाथ लौटने का कारण पूछने लगा । तब उसने मुझे बताया कि मैं आपके लिए आहार पाने के विचार से महेन्द्र पर्वत के मार्ग को रोककर बैठ गया था । मैं समुद्र के जीवों को रोकने की चेष्टा में सिर नीचा किये