पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३३१

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बैठा था कि मैंने देखा एक कृष्णवर्णी पुरुष एक सुन्दर बाला को बलात् लिए जा रहा है । मैंने उन दोनों को आपके आहार के लिए पकड़ लाने का निश्चय किया । किन्तु वह कृष्णवणी पुरुष मेरे मार्ग रोकने पर हाथ जोड़कर कहने लगा - गृध्रपति , मैं मुनि - कुमार हूं । तुम कृपाकर मेरी राह छोड़ दो । उसकी प्रार्थना पर मैंने उसे मार्ग दे दिया , क्योंकि विनय करने वाले पुरुष को मैं नहीं मारता । इसके बाद वह पुरुष अपने तेज से आकाश- मार्ग को प्रकाशित करता हुआ चला गया । वह चमत्कार मैं देखता ही रह गया । वह स्त्री अलंकार विहीना , पीत वस्त्रधारिणी, अति व्याकुल हो हा राघव , हा दाशरथि राम , हा सौमित्र कह-कहकर बिलख रही थी । उसके केश खुले थे और वह भय से पीली पड़ रही थी । फिर भी उसके सौन्दर्य से दिशाएं प्रकाशमान हो रही थीं । ___ “ पुत्र से यह सन्देश सुन मैंने कहा - यदि वह स्त्री दाशरथि नाम को पुकार रही थी तो अवश्य ही वह हमारे मित्र दशरथ की कुलस्त्री होगी, तूने उस हरणकर्ता को पकड़ा क्यों नहीं ? पुत्र ने कहा - हन्त , मैं नृपेन्द्र दशरथ की मैत्री की बात नहीं जानता था । इसी कारण उसमें मेरी रुचि नहीं हुई । सो अब मैं भली - भांति समझ गया कि तुम उस स्त्री की खोज में निकले हो और उस पतित चोर को भी मैं भली - भांति जानता हूं । उसका पता मुझे आकाशचारियों और सिद्धों से पीछे लगा, जिन्होंने उस हरण की हुई स्त्री को ले जाते हुए मेरे पुत्र की भांति देखा था । " सम्पाति के ये वचन सुनकर अंगद ने कहा, “ आर्य, अधिक का प्रयोजन नहीं है । आप केवल हमें उस चोर का पता बता दीजिए। फिर हम उससे निबट लेंगे। " सम्पाति ने कहा - “ सुनो , तुम्हारा वह चोर और मेरे भाई का हत्यारा पुरुष विश्रवा मुनि का पुत्र पौलस्त्य रावण है। वह धनपति कुबेर का भाई और सप्तद्वीपों का स्वामी है । उसका बल - वीर्य अपार है और त्रैलोक्य को जय करके वह अब महिदेव बन गया है । उसने रक्ष- संस्कृति स्थापित की है । वह जैसा महारथी अजेय योद्धा है, वैसा ही विश्रुत वेदज्ञ है । वह धर्म , नीति , विज्ञान , कला और अर्थशास्त्र का महाज्ञाता है। यहां से सौ योजन की दूरी पर समुद्र में एक द्वीप है, जिसमें त्रिकूट -शिखर पर स्वर्ण लंकापुरी बसी है । उस नगरी के द्वार , चतुष्पथ , दीवार , भवन स्वर्णमण्डित हैं , जो सूर्य के प्रकाश में सूर्य के ही समान देदीप्यमान रहते हैं । ऐसा प्रतीत होता है जैसे शत - सहस्र सूर्य वहां उदय हो रहे हैं । यह राक्षसपुरी लंका दुर्लंघ्य , दुर्धर्ष, दुर्गम्य और दुष्प्रवेश है । एक लाख राक्षस योद्धा रात -दिन नगर -द्वारों पर पहरा देते हैं । उनका बल अमोघ है। तभी तो रावण ने देवराट् इन्द्र को बन्दी बनाया था । उसने उससे दास्य- कर्म कराकर मुक्त किया है। अरे , जिन देवों को पृथ्वी का नृवंश पूजता है , वे उसकी ड्योढ़ी पर दासभाव से रहते हैं । उसका भाई कुम्भकर्ण पर्वत - शृंग के समान विशालकाय , महाभक्ष , महोदर , महाप्राण है । उसके सम्मुख काल भी नहीं ठहर सकता है । फिर उसका पुत्र इन्द्रजित् मेघनाद है, जिसके सम्बन्ध में सुना है कि उसे सब दिव्य माया - शक्तियां प्राप्त हैं । यह परिवार भूतभावन भगवान् रुद्र द्वारा रक्षित है । फिर उसकी सेवा में अनगिनत राक्षस भट हैं । सो हे वानरो, तुम कैसे उस शत्रु से पार पाओगे ? " सम्पाति के ये वचन सुन सब वानर सन्न रह गए। तब अंगद ने धीर वाणी से कहा - “ आर्य, ऐसे धीर, वीर , प्रतापी , विद्वान् महिदेव और सप्त - द्वीपाधिपति ने कैसे यह निन्दनीय चौर कर्म किया ? यह तो बड़े ही आश्चर्य की बात है। परन्तु जो हो , हम प्राण देकर