नहीं जाऊंगा तो फिर यह कार्य सम्पन्न नहीं होगा । हम सभी को मरण -व्रत धारण करना होगा। फिर आप ही हमें राह बताइए। आप हमारे ज्येष्ठ और वयोवृद्ध हैं । ” जाम्बवन्त ने बड़े वेग की गर्जना की । उन्होंने एक ओर मौन बैठे हनुमान को सम्बोधित करके कहा - “ अरे मारुति , तुम कैसे एक ओर मौन बैठे हो ? अरे , तुम सकल शास्त्रों के वेत्ताओं में श्रेष्ठ, अद्वितीय वीर पवनकुमार, इस समय चुप क्यों हो ? यह क्या तुम्हारे मौन का काल है ? अरे मारुति , पृथ्वी पर तुम - सा बली कौन है ? तुम्हारी गमन - शक्ति से तो गरुड़ भी स्पर्धा करते हैं । तुम्हारा तेज और अप्रतिम प्रताप , मेधा- शक्ति और धैर्य अपरिसीम है । तुम्हारे रहते वानर समाज भला शोक - सागर में कैसे डूबा रह सकता है! अरे वीर, तुम क्या अपने बल -विक्रम को बिल्कुल ही भूल बैठे ? तुम्हारे अपरिसीम पुरुषार्थ को क्या हमें बखानना पड़ेगा ? तुम्हारे रहते क्या मुझ वृद्ध को दु: साहस करना पड़ेगा ? हे वायुकुमार, अपने बल को जाग्रत करो । तुम्हारा तेज और पुरुषार्थ अप्रतिम है। जब मैं युवा था , मैंने इक्कीस बार पृथ्वी की परिक्रमा की थी । बलि - यज्ञ मैंने देखा था , समुद्र- मन्थन भी देखा । अब मैं वृद्ध हो गया हूं । वह बल , पराक्रम और साहस मुझमें नहीं रह गया है । इस समय इन सब वानर यूथपतियों में एक तुम्हीं इस महत्त्व के कार्य के लिए समर्थ हो । फिर क्यों विलम्ब कर रहे हो ! उठो, हम सबका उपकार करो। अपना पराक्रम धन्य करो। " हनुमान् ने जाम्बवन्त ऋक्षराज के ये वचन सुन बार- बार हुंकृति की । वस्त्र उतार डाले , लंगोट कसा , सर्वाङ्ग में सिन्दूर का लेप किया और वे बारम्बार अपना वज्रदेह कुम्भक द्वारा फुलाते हुए सागर - अतिक्रमण को सन्नद्ध हो गए । हनुमान को इस प्रकार उद्यत देख सब वानर हर्षोन्मत्त हो नाचने और चिल्ला चिल्लाकर हनुमान् मारुति का जय - जयकार करने लगे । वे पराक्रमी हनुमान की बारंबार प्रशंसा करने और गर्जना करने लगे। अब सब वयोवद्ध वानरों द्वारा पूजित हो अमिततेज हनुमान् ने सब वानरों को प्रणाम किया और कहा - “ मैं बिना विश्राम किए ही इस सौ योजन के सागर को तैरकर पार करूंगा। यह वरुणालय मेरी जांघों और पिंडलियों के आघात से पीड़ित हो अपनी मर्यादा को त्याग देगा । समुद्र के इस प्रकार मेरे थपेड़ों से क्षुब्ध होने पर उसमें निवास करने वाले बड़े- बड़े ग्राह अन्दर से उसके ऊपर निकल आएंगे । मैं अत्यन्त वेगवान् वैनतेय गरुड़ की गति की भी परवाह नहीं करता । मैं समुद्र का लंघन कर , दूसरी ओर भूमि पर उतरे बिना ही फिर लौट आने में पूर्ण समर्थ हूं । मुझे नभचर - जलचर किसी का भय नहीं। इस समय मैं उत्साहित हूं , मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैं दस हजार योजन जा सकता हूं । मैं चाहूं तो समुद्र को सोख लूं । खूदकर पृथ्वी को चूर्ण कर दूं। जब मैं जल में छलांग भरूंगा और आकाश में भी , उस समय नाना लता- वृक्ष - पुष्प मेरे साथ उड़ जाएंगे । मैं आकाश में छाया की भांति चलूंगा । अब पृथ्वी पर कोई सत्त्व मुझे रोक नहीं सकता । मैं निश्चय ही भगवती सीता की खोज लगाऊंगा। अब आप सब निश्चिन्त रहें । हर्ष मनाएं । मुझसे बना तो मैं समूची लंका ही को विध्वंस करके लौटुंगा । आज मैं उस विश्रवा मुनि के पुत्र सप्तद्वीपपति रावण और उसके इन्द्रजित् पुत्र को देखूगा। यदि वह सत्य ही सीता भगवती का चोर है तो निश्चय जानो कि अब उसके जीवन की इति हो चुकी । " इतना कह हनुमान् मारुति ने बारंबार वज्र - गर्जना की । यह देख सभी वानर गर्जना करने लगे । उनकी सम्मिलित गर्जना से वातावरण ध्वनित हो उठा । अब जाम्बवन्त ऋक्षेन्द्र
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