90 . सागर - तरण गृध्रराज सम्पाति द्वारा सीता का समाचार सुन गर्जना करते हुए सम्पूर्ण वानरों ने समुद्र - तट पर आ डेरा डाल दिया । सम्मुख आकाश के समान अपार सागर था । समुद्र को देख वे सोचने लगे - कैसे इस अपार सागर को पार किया जाएगा ? यह तो अत्यन्त दुष्कर कार्य है । इस दुस्तर कार्य के सम्बन्ध में बातें करते - करते सभी वानर विषादग्रस्त हो गए । जब अंगद ने यह देखा तो कहा - “वीरो, चिन्ता न करो, विषाद को त्याग दो । विषाद में अनेक दोष हैं । अत : वह विचारशीलों के लिए त्याज्य है । विषाद से पुरुषार्थ का नाश होता है । पराक्रम के अवसर पर विषादग्रस्त होने पर पराक्रमी पुरुष के तेज का नाश हो जाता है , जिससे वह पुरुष ठीक समय पर पुरुषार्थ से विहीन हो जाता है। अब कहो , तुममें से कौन शूर इस सौ योजन विस्तार के समुद्र को लांघकर समस्त यूथपतियों को महान् संकट से मुक्त कर सकता है ? किसकी कृपा से हम सफल - मनोरथ होकर घर लौटने और अपने स्त्री - बच्चों से मिलने की आशा करें ? हममें कौन वीर समुद्र-लंघन में समर्थ है , जो यह दुष्कर कार्य कर हमें अभय प्रदान करे ? " युवराज अंगद के वचन सुनकर भी सब यूथपति मौन हो बैठ गए। उनके मुंह से बोल न निकला । तब अंगद ने उत्तेजित होकर कहा - “ हे वीरो, आप अजेय योद्धा हैं , महापराक्रमी हैं , उत्तम कुल में आपका जन्म हुआ है, आपका पराक्रम विश्रुत है, फिर भी आप मौन हैं ! यह हमारे प्राणों का तथा हमारे स्वामी की प्रतिष्ठा का प्रश्न है, इसलिए हमें इस उद्योग में प्राण भी देने पड़ें तो हम उनकी आहुति देंगे । अब तुम कहो किसमें कितनी शक्ति है ? मैं तो समझता हूं कि हम सभी समुद्र-लंघन में समर्थ हैं । " युवराज अंगद के वचन सुनकर यूथपति वानर अपना - अपना बल निवेदन करने लगे। गज ने कहा - “ मैं दस योजन तैर सकता हूं । ” गवाक्ष ने कहा - “मैं बीस योजन जा सकता हूं। शरभ ने कहा - “मैं तीस योजन । ” ऋषि बोला “ मैं चालीस योजन तैर जा सकता हूं। ” महातेजस्वी गन्धमादन ने पचास योजन जाने की बात कही । तब मयंक ने साठ योजन की अपनी शक्ति बताई। यूथपति द्विविद ने कहा - “मैं सत्तर योजन तैर सकता हूं। " फिर सुषेण वानरपति ने अस्सी योजन की हामी भरी। सबके बाद ऋक्षराज जाम्बवन्त ने कहा - “मैं वृद्ध हुआ। मेरा पुरुषार्थ क्षीण हो गया है, पर मैं नब्बे योजन तक जा सकता हूं। " इस पर महावीर्यवान् अंगद ने कहा - “ मैं सौ योजन तक जा सकता हूं , परन्तु लौटने में संदिग्ध हूं। ” तब जाम्बवन्त ने कहा - “ युवराज, तुम्हारी शक्ति मैं जानता हूं - तुम सौ क्या , पांच सौ योजन तैर सकते हो ; परन्तु तुम्हारा भेजना हमें अभीष्ट नहीं है । तुम हम सबको आज्ञा देने वाले , हमारे कटकपति हो । हम सब तुम्हारे आज्ञापालक सेवक हैं । स्वामी की रक्षा करना सेवक का कर्म है । तुम्हारे ऊपर सीता की खोज का दायित्व - भार है, अत : तुम अपनी आज्ञा से इन्हीं में से किसी को भेजो । इस पर दु:खित अंगद ने कहा - "ऋक्षेन्द्र, मैं
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