पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३३७

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91. लंका में अन्वेषण दूर तक फैली हुई सुनील जलराशि और सामने स्वर्णवर्ण रजकण , ठौर -ठौर पर ताल , तमाल , हिंताल की सघन -विरस द्रुम , जिनपर कूजित विहंगवृन्द - यह सब देख मारुति का सब श्रम दूर हो गया । उनका चित्त प्रसन्न हो गया । बड़ा दुस्तर कार्य हुआ , परन्तु अब पद - पद पर साहस , सावधानी और पराक्रम का अवसर था । हनुमान् स्वर्ण - रजकण पर धीर चरण रखते , अपने चारों ओर सावधानी से देखते , वज्रमुष्टि में अपनी लौह गदा थामे आगे बढ़ त्रिकूट -शिखर पर चढ़ गए । वहां सघन वृक्षों की झुरमुट में बैठ, पुष्पभारनमित वृक्षों की आड़ में छिप उस अद्भुत स्वर्ण -लंका को निहारने लगे। उन्होंने देखा , उस लंकापुरी के बाहर अनेक बाग - बगीचे, वापी - तड़ाग हैं , जहां सब ऋतुओं के फल -फूल अमित विस्तार में लदे हैं । जहां पक्षी फुदक - फुदककर स्वच्छन्द विहरण कर रहे हैं । तालाबों में बड़े-बड़े शतदल कमल खिले हुए हैं , जहां हंस और चक्रवाक मधुर गुंजन कर रहे हैं । राक्षस छोटे- छोटे जलाशयों और उपवनों में क्रीड़ा -विनोद कर रहे हैं । उस लंका के चारों ओर अलंघ्य खाई को भी मारुति ने देखा, जो समुद्र की भांति अगम थी । उन्होंने यह भी देखा कि लंका की रक्षा चौकी और पहरे का बहुत अच्छा बन्दोबस्त है। नगर के द्वारों पर , गवाक्षों पर , परकोटों पर , बुर्जियों पर, असंख्य धनुर्धर राक्षस भट मुस्तैदी से पहरा दे रहे हैं । कहीं जरा भी सन्धि नहीं वे धीरे - धीरे पर्वत - शृंग से उतर नगर के निकट पहुंचे। तब उन्होंने धवल सौध पंक्तियों को भली- भांति देखा, जिनके शिखर स्वर्णमण्डित थे और जिनकी शोभा शरदभ्र की भांति शुभ्र - मनोरम थी । नगर में सब ओर ऊंची सतह पर बनी सफेद सड़कें थीं । अट्टालिकाओं पर विविध रंग की ध्वजा- पताकाएं वायु में फहरा रही थीं । घरों के द्वारों पर कलापूर्ण चित्रकारी की गई थी । उस राक्षसपुरी को देख महाबली मारुति आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने मन - ही - मन कहा, अहो, इस राक्षस रावण का तो बड़ा भारी प्रताप है। यह लंकापुरी तो इन्द्र की अमरावती से स्पर्धा लेती - सी दीख रही है। वे अत्यन्त प्रच्छन्न भाव से चलकर पर्वत - शृंग के समान दुरारोह और गगनस्पर्शी उत्तर नगर - द्वार पर आए। इस समय उन्होंने एक निरीह मुनिकुमार का वेश बना लिया और वे नगर में चुपचाप इधर - उधर विचरने लगे । वहां की रक्षा - पद्धति और अजेय स्थिति को देख मारुति मन ही मन कहने लगे – “ यह तो सर्वथा अजेय नगरी है । वानर और श्री राम भला कैसे इस सुदृढ़ प्री को जीत सकते हैं ! यहां इन दुर्भट राक्षसों से लड़कर जय पाना तो सम्भव ही नहीं प्रतीत हो रहा है । युद्ध के अतिरिक्त यहां तो साम -दाम से भी कार्य बनता नहीं दीख रहा है। इस लंका में अंगद, नील , सुग्रीव और मैं केवल चार ही ऐसे वानर भट हैं जो प्रवेश कर सकते हैं ; सो भी छद्म- वेश में । परन्तु अभी तो मुझे अपना काम साधना है। सो मेरा काम रात में ही हो सकता है। अब मुझे ऐसा कौशल करना होगा कि मैं भगवती सीता को देख सकू , पर कोई