पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३३८

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मुझे देख - पहचान न सके । मुझ दूत को सकुशल यहां से संदेश लेकर वापस लौटना भी तो है । इसलिए युक्तिसंगत बात यह है कि मुझे संघर्ष तथा शक्तिक्षय से बचना ही चाहिए । मुझे श्री राम के दूतत्व का निर्वाह करना है । अविवेकी दूत द्वारा देश - काल के प्रतिकूल व्यवहार करने से बहुधा बने काम बिगड़ जाते हैं । इन सब बातों को विचार मारुति दिन छिपने तक किसी एकान्त स्थान में छिपकर बैठ गए। जब रात्रि का अन्धकार चारों ओर व्याप्त हो गया तो घरों की छाया में अपने को छिपाते , पद - शब्द को बचाते , राक्षसों की दृष्टि को चुराते , वे एक घर से दूसरे में और दूसरे से तीसरे में जाने लगे। उन्होंने अनेक अट्टालिकाएं और स्तम्भों में सुशोभित अलिन्द देखे । अनेक सतमहले सुन्दर विशाल महल देखे, जिनके फर्श स्फटिक -शिलाओं के समान थे, जहां स्वर्ण के समान भवन और बैठकें बनी हुई थीं , जिनमें सोने के गवाक्ष और कपाट थे। परन्तु कहीं भी उन्हें सीता की झलक न दीख पड़ी । इससे वे उदास होने लगे । नगर के सभी महल मायाकार बने थे; नगर में स्वस्थ समुद्री वायु चल रही थी । बहुत - सी अट्टालिकाओं में से घंटियों की रणन - ध्वनि आ रही थी । वह नगरी रत्नजटित वस्त्रों से सुशोभित रमणी- सी दीख रही थी । उसमें बने श्वेत भवन उसके कर्णाभूषण के समान लग रहे थे। चारदीवारी पर बने शस्त्रागार उसके स्तन - से प्रतीत होते थे। देदीप्यमान दीपावलियों से अन्धकार का नाश हो जाने से नगरी जगमग कर रही थी । अभी हनुमान् मारुति यह सब देख ही रहे थे कि द्वारपालिनी राक्षसी लंका ने उनके सम्मुख आ और खड्ग उनके कंठ पर रखकर कहा - “ अरे दुरात्मा , तू कौन है जो चोर की भांति रक्षेन्द्र- रक्षित लंकापुरी में प्रच्छन्न भाव से विचर रहा है ? मरने से पूर्व अपना परिचय दे और यह बता कि तूने यहां आने का साहस कैसे किया ? " उस राक्षसी की यह भयानक बात सुनकर मारुति ने धीर स्वर में कहा - “ महाभागे, इस भयानक और स्त्रीजन- अशोभित वेश में तू कौन है और किसलिए मुनिकुमार से ऐसे अभद्र वचन कह रही है ? " लंका ने कहा - “मैं लंका नामक राक्षसी लंका की नगर - रक्षिका हूं। लंका पर रात में मेरी ही चौकी रहती है। कोई देव , दैत्य मेरी दृष्टि बचाकर लंका में प्रविष्ट नहीं हो सकता । जो ऐसा करता है, उसकी मृत्यु निश्चित है। सो तू भी अब अपने को मृत्यु -मुख में ही समझ। ” यह सुन मारुति ने कोमल कण्ठ से कहा - “ महाभागे, मैं मुनिकुमार तेरी सुशोभिता नगरी लंका को देखकर प्रसन्न होने आया हूं। बस , देख -भालकर लौट जाऊंगा । अब तू मुझ पर प्रसन्न हो । ” इस पर वह राक्षसी एकदम क्रुद्ध हो उठी और उसने मारुति की नाक पर एक बूंसा मारा । मुक्का खाते ही मारुति ने भी उसके मुंह पर एक चपेटा मारा। चपेटा खाकर वह घूमकर भूमि पर गिर गई । तब मारुति ने उसके कंठ पर चरण रखकर कहा - “ अब तू मर ! " इस पर करबद्ध प्रार्थना कर वह राक्षसी बोली - “ हे मुनिकुमार, मेरे प्राणों की तू रक्षा कर । मेरे प्राण हरण मत कर , मैं तेरी शरणागत हूं ! हनुमान् यह सुन उसका कंठ छोड़ तुरन्त ही अन्तर्धान हो गए तथा इधर - उधर भवनों में पैठ - पैठकर उन्हें देखने लगे। उन्होंने देखा कि कही कलकण्ठी रमणियों के गाने की आवाज आ रही है, कहीं राक्षस वेदमन्त्र -पाठ कर रहे हैं , कही सैनिक अपने शस्त्र संवार रहे