पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३५५

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घेरकर नवयुवतियां आकर्षक शृंगार किए खड़ी थीं । दुर्धर , प्रहस्त , महापाश्र्व और निकुम्भ ये चार सचिव उनके निकट उपस्थित थे। मारुति ने रावण को देख उसके रूप , पराक्रम , वैभव और शक्ति की मन - ही - मन सराहना की । ___ रस्सियों से बंधे हनुमान् को सम्मुख देख रोष से अभिभूत रावण ने मंत्रियों की ओर देखकर कहा - “ इस दुरात्मा से पूछो कि यह कौन है, किस अभिप्राय से अनधिकृत रूप से यह लंका में आया है ? किसलिए हमारे अशोक वन में इतना उपद्रव किया तथा हमारे प्रियजनों को मारा ? " रावण के ये वचन सुनते ही मारुति ने कहा - “ हे रक्षेन्द्र , मैं महात्मा सुग्रीव का सचिव हनुमान् हूं तथा उन्हीं का भेजा हुआ आपकी सेवा में दौत्य कार्य के लिए आया हूं । उन्होंने जो संदेश मेरे द्वारा आपके पास भेजा है, वह मैं निवेदन करता हूं। इक्ष्वाकुवंशी महाराज दशरथ के पुत्र राम धर्ममार्ग का आश्रय ले अपनी पत्नी सीता और भ्राता लक्ष्मण सहित दण्डकारण्य में आए थे। वहां से उनकी पत्नी जनकसुता सीता को कोई दुरात्मा चोर चुरा ले गया । उनकी खोज करते हुए दोनों भाई ऋष्यमूक पर्वत पर आए और उन्होंने वानरों के अधिपति सुग्रीव से मित्रता कर ली । उनके हित के लिए श्रीराम ने महाबली बालि का वधकर सुग्रीव को वानरों का अधिपति बनाया । अब हम वानर सीता की खोज में अपने स्वामी की आज्ञा से निकले हैं । मैं उन्हीं की खोज करता हुआ आपकी लंका में आया हूं। मैंने यहां अशोक वन में भगवती सीता को देखा है । आप महामति हैं । धर्मज्ञ हैं । अर्थ- काम को भली- भांति समझते हैं । अत : पराई स्त्री का इस प्रकार से हरण करके बलात् घर में रखना आपके लिए हर तरह अशोभनीय है। आप परम नीतिवान् हैं , आप जानते हैं कि धर्म -विरुद्ध काम करने से अनर्थ ही होता है । श्री राम से विरोध करना रक्षेन्द्र के लिए हितकर नहीं होगा। इसलिए आप रक्ष -महीपति , मेरी धर्मानुकूल बात मान , रघुकुल वधू , भगवती सीता को सम्मान- सहित श्री राम के पास भेज दीजिए । इसी में आपकी भलाई तथा कुशल है । अब अपना हिताहित सोचने में रक्षेन्द्र ही प्रमाण हैं । " ____ मारुति के ऐसे वचन सुनकर भी रावण का क्रोध शान्त नहीं हुआ । उसने मंत्रियों की ओर देखकर कहा - " इस धृष्ट और राजपुत्र के वधकर्ता वानर का अभी वध करो ! रावण की ऐसी आज्ञा सुन विभीषण ने हाथ बांधकर निवदेन किया - “रक्षेन्द्र, दूत अवध्य है । इसने भली - भांति अपना दूतत्व प्रमाणित किया है । आप धर्मात्मा तथा प्रतापी सप्तद्वीपपति हैं । दूत - वध से आपका यश कलंकित होगा । इसलिए आप राजधर्म तथा सत्यधर्म का विचारकर इस धृष्ट दूत के लिए कोई राजोचित दण्ड का विधान कीजिए । " इस पर रावण ने क्रुद्ध स्वर में कहा - “किन्तु इस पापिष्ठ ने अशोक वन में बिना हमारी अनुमति के जाकर , वहां उपद्रव करके एवं वहां के राक्षसों का हनन करके दूतोचित कार्य नहीं किया । अत : इसका वध ही ठीक है। " विभीषण ने कहा - “ महिदेव प्रसन्न हों । इस मूर्ख ने भीषण कर्म किया है। इसका अपराध अतुलनीय है तथापि यह दूत है। दूत का वध अनुचित है । अपराधी दूतों के लिए वध के अतिरिक्त अनेक दण्ड -विधान हैं । यथा - अंग - भंग , ताड़न , छेदन , मुण्डन , तप्तशलाकादाह , आदि; पर दूत - वध अश्रुत है - अनुचित है। आप महिदेव हैं । धर्मनीति के आचार्य हैं । शास्त्राचार को समझने, उस पर यथावत् आचरण करने तथा लोकाचार के