पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३५७

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शुक , सारण , इन्द्रजित्, कुम्भकर्ण, हस्तिमुख, रश्मिकेतु , सूर्पशत्रु आदि सेनापतियों और मंत्रियों के महल धायं - धायं कर जलने लगे । अब तो प्रचण्ड वायु का आघात खा आग की लपटें कालमेघ की भांति लंका को ग्रसने लगीं। हर्म्य, महल , अट्टालिकाएं , जल -जलकर टूटने और ढहने लगीं । राक्षस स्त्री - पुरुष, बाल -वृद्ध, प्रौढ़ सभी प्राणों का भार ले इधर - उधर प्राण बचाने को दौड़ने लगे । उसी भीड़ में मिले - जुले हनुमान् भी अपना काम करते जा रहे थे। ____ महिदेव , सप्तद्वीपाधिप रावण का मणिमहल इस समय अग्नि - समुद्र बन रहा था । मोतियों - मणियों से जड़ी खिड़कियों के तोरण , रत्नजटित ऊंचे-ऊंचे स्तम्भ , सतखण्डे प्रासाद और अट्टालिकाएं फट - फटकर भूमिसात हो रहे थे। आग बुझाने के सभी प्रयत्न निष्फल हो रहे थे । सारी ही लंका में आग का समुद्र हिलोरें ले रहा था । स्त्री - पुरुषों के करुणक्रन्दन से वातावरण भर गया । मरते हुए , रोते- कलपते हुए राक्षस स्त्री - पुरुष जहां - तहां भटक रहे थे। जलते मकानों में से मोती , मूंगा, वैदूर्य , मणि , नील गल -गलकर , पिघल-पिघलकर बह रहे थे। प्रलयाग्नि की भांति आग ने समूची ही लंका को ग्रस लिया । मकानों के गिरने से जो धड़ाके हो रहे थे वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे, जैसे ब्रह्माण्ड फट पड़ा हो । ठौर - ठौर पर राक्षस भयभीत मुद्रा से कह रहे थे – “ यह वानर तो साक्षात् काल ही है। इस प्रकार धन , धान्य , मणि , रत्न , स्वर्ण, हाथी , घोड़े, रथ , पशु , पक्षी , वृक्ष , लता - गुल्म , राक्षस , नाग , देव , दैत्य , दानवों से भरी - पूरी वह समृद्ध लंका भस्मीभूत हो गई । लंकावासी स्त्री - पुरुष अपने - अपने प्रियजनों को खोजते हुए हा पुत्र , हा स्वामी , प्रिये , हा मित्र , कहते हुए उस अग्नि समुद्र में भस्म हो गए। राक्षसों के भयानक आर्तनाद से आकाश व्याप्त हो गया । अब हनुमान् ने समूची लंका को धायं- धायं भस्म होता छोड़ समुद्र-लंघन का संकल्प किया । वे अरिष्ट गिरि की चोटी पर चढ़ गए । यह स्थान निर्जन था । वहां उत्तम वन फल , मीठा जल एवं सघन छाया थी । उन्होंने जल पिया , फल खाए और विश्राम किया । फिर वे धीरे - धीरे नीचे आ समुद्र गर्भ में पैठ गए। सागर की उत्तुंग तरंगों पर उनका वज्रकाय थिरकने लगा । महाप्रयास कर वे सागर में उसी प्रकार अपने साहस से आगे बढ़ने लगे, जैसे आए थे। उद्दाम आत्मनिष्ठा, असीम साहस , अदम्य शक्ति और असाधारण दृढ़ संकल्प से अन्ततः उन्होंने उस दुस्तर सागर की तरु - भूमि पर चरण रखा । पृथ्वी में न देखा - सुना हनुमान का यह अद्भुत आश्चर्यजनक अभियान सम्पन्न हुआ !