95. प्रिय -निवेदन वानरों का यूथ उत्साह और उमंग में भरपूर था । अब युद्ध की उमंग उनके रक्त में भरी थी । कार्य - साफल्य के श्रेय ने उन्हें अदम्य कर दिया था । वे अब राम को प्रिय संदेश निवेदन करने और लंका पर अभियान करने को बेचैन हो रहे थे। वे परस्पर उत्साहवर्धक बातचीत करते जा रहे थे। शीघ्र ही वे सुग्रीव के सुरक्षित मधुवन में जा पहुंचे। सुग्रीव का मामा दधिमुख वहां का रक्षक था । उसकी तनिक भी आन न मानकर वे मधुवन में उत्पात मचाने और मधुपान करने लगे । उसके उत्पाद से क्रुद्ध हो दधिमुख ने सुग्रीव से निवेदन किया । सुग्रीव ने हंसकर कहा - “ समझ गया ! वे कार्य सिद्ध करके आ रहे हैं । तभी उन्होंने यह साहस किया है। उन्होंने अवश्य ही भगवती सीता का पता लगा लिया है। उनके उत्पात उनके हृदय के आनन्द के द्योतक हैं । जाओ, उनसे कहो कि मैं उनपर प्रसन्न हं । उनका अपराध क्षमा करता हूं। अब तुम हनुमान् आदि प्रमुख वानरों को शीघ्र मेरे पास भेज दो । " दधिमुख ने स्वामी का यह भाव देखा तो मधुवन में जाकर अंगद से विनम्र भाव से कहा - “ आप युवराज हैं , हमारे स्वामी हैं , हमारा अविनय क्षमा कीजिए तथा मधुवन में यथेच्छ विहार कीजिए - यथेच्छ मधुपान कीजिए। अब आप और हनुमान् प्रमुख यूथपति महाराज सुग्रीव की सेवा में उपस्थित हों , वानर - राज प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस पर अंगद ने कहा - “वीरो, यद्यपि मैं युवराज हूं, तथापि आप लोगों पर शासन नहीं कर सकता । आप लोगों ने महान् कार्य सम्पन्न किया है। आप पर शासन करना आपका अपमान करना है। " अंगद के ये वचन सुन जाम्बवन्त ने कहा - “ युवराज, आपके समान ऐसे वचन कोई नहीं कह सकता । स्वामी होकर भी अपने अधीन जनों से कौन इस प्रकार की बातें करेगा ? चलिए, अब हम श्री राम की सेवा में चलकर प्रिय संदेश निवेदन करें । " श्री राम के निकट पहंचकर, मारुति हनुमान ने आगे बढ़ राम के चरणों में प्रणाम कर निवेदन किया - हे सीतापते , आपके आशीर्वाद से मैंने भगवती सीता के दर्शन कर लिए। वे अपने प्राण त्यागने के लिए उपवास कर रही हैं । महाराज , मैं सौ योजन दुर्धर्ष समुद्र का लंघन कर लंका में पहुंचा, जो समुद्रों के बीच दक्षिण में है । वहां मैंने अशोक वन में भगवती सीता को पतिव्रत के कठोर नियमों का पालन करते हुए देखा। वे शरीर से कुशल हैं । अपने जीवन को अप्रिय समझकर भी वे जीवित हैं । भयानक राक्षसियां उन्हें हर समय घेरे रहती हैं , उन्हें डराती - धमकाती हैं । भगवती सीता उन राक्षसियों की सभी यातनाएं सहती हैं । वे एक ही चोटी करती हैं । भूमि पर सोती हैं । उपवास से उनका शरीर क्षीण हो गया है। वे अत्यन्त दयनीय दशा में जीवन के शेष दिन ज्यों - त्यों करके व्यतीत कर रही हैं । वे निरन्तर आप ही के ध्यान में मग्न रहती हैं । मैंने उन्हें आप ही के ध्यान में रत दीनावस्था में देखा है। " मारुति के ये वचन सुन राम ने उठकर मारुति को हृदय से लगाया । तब हनुमान् ने
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