कौए का वृत्तान्त सुनाकर सीता की दी हुई मणि राम को दी, जिससे राम को पूरी प्रतीति हो गई । तब हनुमान् ने कहा - “ अब भगवती की जीवन - अवधि में केवल एक मास ही शेष है । " राम ने मणि को छाती से लगाकर आंखों से अश्रुजल गिराते हुए सुग्रीव से कहा - “ हे मित्र, इस मणि को देखकर आज मैं शोक - सागर में डूबा जा रहा हूं । यह मणि समुद्र से निकली हुई है । मेरे श्वसुर को प्रसन्न होकर देवताओं ने दी थी । उन्होंने मेरे विवाह के अवसर पर अपनी पुत्री सीता को दी । सीता इसे सदा मस्तक पर धारण करती थी । अब पवनकुमार ने मुझ मृत व्यक्ति को अमृत के समान यह मणि देकर मेरी निराशा दूर की है । पर सीता के बिना यह मणि देखकर मैं धैर्य कैसे रख सकता हूं ? हे मित्र, अब विलम्ब का क्या काम है ? चलो , दुरात्मा रावण के चंगुल में फंसी हुई विदेहनन्दिनी का हम उद्धार करें । हनुमान् ने बड़े साहस का काम किया है । ऐसा काम संसार में और किसी वीर ने नहीं किया ।। हे वीर मारुति , तुम धन्य हो ? भला तुम्हारे सिवा देव , दानव, यक्ष , गन्धर्व, नागों से भी अजेय रावण से रक्षित लंकापुरी में अपने बल के भरोसे जाकर कौन जीता लौट सकता था ? तुमने जनकनन्दिनी का संदेश देकर मेरी और रघुवंश की रक्षा की है । मेरे पास तुम्हारे योग्य कोई पुरस्कार भी तो नहीं है। ” यह कहते - कहते प्रेम -विभोर हो राम ने हनुमान् को छाती से लगा लिया । फिर उन्होंने शोकसंतप्त हो सुग्रीव से कहा - “ हे मित्र, सीता का पता लग गया , पर बीच में समुद्र बाधक है । उसे पार करना दुस्तर है । कहो, कैसे यह दुस्तर कार्य पूरा होगा ? कैसे यह वानर - दल इसे पारकर लंका पहुंच सकेगा ? " सुग्रीव ने कहा - “ हे मित्र , जब सीता की खोज मिल गई और शत्रु के निवास का पता लग गया तो फिर अब शोक का क्या काम ! हम लोग अनायास ही इस सागर को पारकर लंका को छार कर डालेंगे। आप शोक त्याग दीजिए। हे राम , शोकाकुल और उत्साहहीन पुरुष के सभी काम नष्ट हो जाते हैं । इसी से वह आपदस्त हो जाता है । ये वानर - यूथपति सब प्रकार समर्थ और महाशूर -वीर हैं । आपके प्रिय के लिए ये आग में भी कूद सकते हैं । बस , अब हमें समुद्र पर पुल बांधने का प्रयत्न करना चाहिए । समुद्र पर पुल बंधे बिना तो देवराट् इन्द्र सहित समस्त देव , दैत्य , किन्नर , मानव, दानव भी लंका का कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते । परन्तु पुल बंधने पर बस एक बार लंका हमारी आंखों में चढ़े तो उसे नष्ट हुआ और रावण को मरा ही समझिए । हमारे योद्धा स्थिर और अजेय हैं । विजय निश्चय हमारी ही होगी । अब आप शोक त्याग दीजिए। शोक सब कामों को बिगाड़ देता है। जिस काम के लिए बल -विक्रम की आवश्यकता है, उसमें शोक बाधक है । अत : आप शोक को त्याग विक्रम को हृदय में स्थान दीजिए। आप सब शास्त्रों के ज्ञाता तथा महास्त्रों के अधिपति हैं । अत : हम अपने योग्य मन्त्रियों की सहायता से अवश्य शत्रु पर विजय प्राप्त करेंगे। " सुग्रीव से ऐसी युक्तिसंगत वार्ता सुन राम ने साभिप्राय हनुमान् की ओर देखकर कहा - “ हे सौम्य , सुना जाता है कि लंका पर विजय पाना तथा उसमें प्रवेश करना अत्यन्त दुष्कर है। इसलिए मैं जानना चाहता हूं कि लंका में कितने दुर्ग हैं ? अपने नेत्रों से देखे हुए के समान ही मैं उसका विवरण स्पष्ट सुनना चाहता हूं । हे वीर , तूने समूची लंका का युद्ध की दृष्टि से गहन अध्ययन किया है । इसलिए कह कि रावण की सेना कितनी है और लंका की
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