पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ही नहीं। फिर इन दो एकाकी राज - भ्रष्ट मानवों की क्या बात है! हम सब बेखबर थे। शत्रु के आक्रमण का विचार न भी था इसी से वह धूर्त वानर हमें धोखा दे गया । लंका को भस्म करके जीवित बच निकला। अब वह सब वानरों को काल के मुंह में धकेलने को ला रहा है । " दुर्मुख, सेनानायक ने खड़े होकर कहा - “ हे पृथ्वीपति , हनुमान् का यह उत्पात तो हमारा - आपका, सबका अपमान है । आप आज्ञा दीजिए, मैं अकेला ही जाकर समुद्र- तट पर उस वानर - सहित सब वानरों को मृत्यु की भेंट करूं । " अब महाबली वज्रदंष्ट्र सेनापति अपने भयंकर परिघ घुमाता हुआ बोला , “ महिदेव प्रसन्न हों , मैं तो यह कहता हूं कि जिस प्रकार हो , शत्रु पर विजय पानी चाहिए । मेरा मत है कि बहुत से राक्षस, जो इच्छानुसार रूप धारण कर सकते हैं , निर्भीक हो राम के पास मानवों के वेश में जाकर मानवी भाषा में कहें कि हमें आपकी सहायता के लिए आपके भाई ने अयोध्या से भेजा है। इस प्रकार सेना में जा मिलें । फिर अवसर पाकर शस्त्र -वर्षा कर वानरों को मार डालें । " इसके अनन्तर रक्षकुमार निकुम्भ ने क्रोध में भरकर कहा - “ अरे वीरो, आप यहीं महाराज की सेवा में उपस्थित रहें , मैं अकेला अभी जाकर उन दोनों भाइयों को मार उनका हृदय निकाल लाता हूं। " तब भूधराकार वज्रहनु बोला - “ कुमार को कष्ट देने का क्या काम है! इतना- सा काम तो मैं अकेला ही कर लाऊंगा। दो मानवों को मार लाने में मुझे कितनी देर लगेगी ! ” तदनन्तर रभस , सूर्यशत्रु , सुप्तघ्न , यक्षकोप , महापाश्र्व , महोदर, अग्निकेतु, दुर्धर्ष , रश्मिकेतु , इन्द्रशत्रु , प्रहस्त , विरूपाक्ष, वज्रदंष्ट्र , धूम्राक्ष , दुर्मुख आदि राक्षस परिघ , पट्टिश , शूल, प्रास, परशु, धनुष और खड्ग लेकर अमर्ष से ओतप्रोत एकबारगी ही वज्र -गर्जना करके बोले - "रक्षेन्द्र महीपति महिदेव की जय हो ! महाराज की आज्ञा से हम आज ही समुद्र- तीर पर जाकर वानरों सहित दोनों मानवों को मार डालते हैं । आप हमें आज्ञा दीजिए! " इस पर धैर्य और राजनीति के परम ज्ञानी , राजमर्यादा के ज्ञाता विभीषण ने उठकर रावण के सम्मुख आ प्रणाम करके कहा - “ हे परन्तप , आज्ञा पाऊं तो निवेदन करूं ! जब से आप लंका में दाशरथि राम की पत्नी को लाए हैं , मैं अनेक -विध अपशकुन देख रहा हूं । मन्त्रों द्वारा यथाविधि आहुतियां देने पर भी अग्नि प्रज्वलित नहीं होती । उसमें चिनगारियां निकलने लगती हैं । उसकी ज्वाला धूमिल हो जाती है । प्रज्वलित अग्नि भी धुएं के कारण काली पड़ जाती है । अग्निहोत्रशाला और वेदभवनों में सांप दिखाई देते हैं । यज्ञ सामग्री में चीटियां दीख पड़ती हैं । गजराजों का मद सूख गया है । घोड़े दीन- दुर्बल हो गए हैं । गायों का दूध सूख गया है। गधों , खच्चरों और ऊंटों के शरीरों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं और उनकी आंखों में आंसुओं की धार बह चलती है । कौओं के झुण्ड मिलकर ठौर - ठौर कर्कश शब्द करते हुए भवनों पर आ बैठते हैं । गिद्ध भी नगर पर मंडराते हैं । सन्ध्याकाल में सियार नगर के निकट आ अमंगल शब्द बोलते हैं । ये सब अत्यन्त विपज्जनक अपशकुन मैं लंका में नित्य देखता हूं। सारी प्रजा देखती है, पर आपके मंत्री आपसे इन बातों को कहने में संकोच करते हैं । हे तात , जहां साम , दान और भेद इन तीनों उपायों से काम सिद्ध न हो सके , वहीं