नीतिशास्त्र से सर्वथा अनभिज्ञ है। स्थिर बुद्धिवाला पुरुष विचारशील और शक्तिशाली होता है । वह शत्रु के दोष को देखता रहता है तथा जहां शिथिलता पाता है , वहीं आक्रमण करता है तथा यज्ञ का भागी होता है । महाराज, आपने बिना ही विचार किए यह क्षुद्र कर्म कर लिया , जो महा अनिष्ट - कारक हो सकता है। राम का बल जनस्थान में देख लिया गया है । मैं तो यह समझता हूं कि आपने बलवान् शत्रु से अविचारपूर्ण दुषित छेड़छाड़ प्रारम्भ कर दी है, जिससे आपके विश्व -विश्रुत सुनाम को कलंकित होने का भय उपस्थित हो गया है । यदि आपकी इस भूल के परिणामस्वरूप हमारी सारी तपस्या , विश्व -विजय की भगीरथ प्रयत्न तथा रक्ष- संस्कृति ही खतरे में पड़ जाए, सम्पन्न लंका पर संकट आ पड़े और आनन्द में मग्न राक्षसों का सर्वनाश उपस्थित हो जाए, तो महाराज वह आप ही का दोष होगा । राजन् मैंने आपके वंश और प्रतिष्ठा के लिए प्राणान्तक युद्ध किए । आपका शत्रु चाहे कैसा ही बलवान् था , मैंने उसे मार डाला। भले ही उसकी सहायता को इन्द्र, वरुण, कुबेर, मरुत् और सब दैत्य - दानव भी आए, पर मेरे हाथ से उसकी रक्षा न कर सके । परन्तु इस स्वेच्छाचारितापूर्ण दुष्कर्म में मेरा आपसे कोई सहयोग नहीं है । मैं शत्रु का पक्ष नहीं लेता , परन्तु आपकी अनीति का अनुमोदन भी नहीं करता । अतः इस संभावित युद्ध में आप मुझसे कुछ भी आशा न रखना । मेरी इच्छा तो अब कुछ दिन एकान्तवास की है । मैं रत्नगुहा में जाता हूं । आपका कल्याण हो ! ” इतना कहकर महातेज कुम्भकर्ण स्वर्णसिंहासन त्याग उठ खड़ा हुआ । इस पर रावण ने क्रुद्ध होकर दर्प से कहा - “ कुम्भकर्ण, समुद्र के समान मेरे वेग और वायु के समान मेरी गति को न जानकर ही वह दाशरथि वानर - सेना ले इस ओर बढ़ा चला आ रहा है । इस प्रकार पर्वत की गुहा में सोए हुए सिंह और सोते हुए काल के समान उसने मुझे छेड़ा है। भयंकर सर्प के समान संग्राम में छूटे हुए मेरे बाणों को राम ने कभी नहीं देखा है । इसी से उसने यह दु: साहस किया है । किन्तु मैं अपने धनुष से छूटे हुए वज्र के समान अगणित अग्निबाणों से उसे भस्म कर डालूंगा। जिस प्रकार सूर्य उदय होते ही नक्षत्रों की कान्ति नष्ट कर देता है, उसी प्रकार मैं इस वानरी कटक को देखते - ही - देखते नष्ट कर डालूंगा। मुझे तेरी आवश्यकता नहीं है । मेरी ओर से तू रत्न - गुहा में शाश्वत एकान्तवास कर । मुझ सहोदर से तेरा क्या प्रयोजन है ? " रावण के ये वचन सुन कुम्भकर्ण रावण को प्रणाम कर , बिना उत्तर दिए, सभा भवन से चला गया । रक्षेन्द्र रावण के वचन सुन, शत्रु-बल से अपरिचित और नीतिशास्त्र से शून्य राक्षस यूथपति योद्धा हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोले - " महाराज! परिघ, शूल और पट्रिश आदि शस्त्रों से सुसज्जित विशाल अजेय सेना हमारे पास है। फिर चिन्ता किस बात की है? इसी सेना द्वारा आपने भोगपुरी के नागों को वश में किया, अलका के कुबेर को आक्रान्त किया , देवेन्द्र को बन्दी बनाया और सुरलोक को जय किया । वरप्राप्त बलवान दानव भी आपके समक्ष नहीं ठहर सके। यमलोक , देवलोक और आर्यवीर्य सभी तो आपकी विजय- दन्दभियों से थर्रा उठे । फिर इस हतवीर्य राम की क्या बिसात ? हे महाराज , जब तक इन्द्रजयी मेघनाद और अकथविक्रम कुम्भकर्ण आपकी आज्ञा के अधीन हैं , आपको किस बात की चिन्ता है! " अब नील मेघ के समान वर्ण वाला प्रहस्त बद्धांजलि खड़ा होकर बोला - "रक्षेन्द्र की जय हो , हम लोग तो युद्ध में देव , दैत्य , यक्ष , नाग , गन्धर्व, पिशाच किसी को भी गिनते
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