पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३७९

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101 . रक्षा कवच महा रणनीति-विशारद , वृद्ध दैत्यपति माल्यवान् श्वेतश्मश्रु, श्वेत परिधान में धीरे धीरे सभा -भवन में आकर राक्षसेन्द्र रावण के सम्मुख खड़ा हुआ । हठात् मातामह को सम्मुख देख रक्षेन्द्र आसन से उठ खड़ा हुआ । उसने वृद्ध दैत्यराज को बद्धाञ्जलि प्रणाम किया । ___ वृद्ध दैत्यपति ने कहा - “ पुत्र , जो राजा समयानुकूल शत्रु से सन्धि -विग्रह करता है , वही चिरकाल तक पृथ्वी पर राज्य कर सकता है। जिसकी शक्ति का ह्रास हो रहा हो अथवा शत्रु के समान ही जिसका बल हो , उसे यथाशीघ्र शत्रु से सन्धि कर लेनी चाहिए । समतुल्यबल शत्रु की कदापि अवहेलना नहीं करनी चाहिए । शत्रु से अपनी शक्ति बढ़ी हुई हो तभी विग्रह करना चाहिए । इसके विपरीत करने से अपना ही सर्वनाश होता है। राम के पक्ष में वे सभी देव , गन्धर्व, यक्ष और ऋषि हैं , जो तुझसे दलित हो चुके हैं । वे सभी राम की जय और तेरा पराभव चाहते हैं । इससे पुत्र , तू इस झगड़े की जड़ सीता को श्री राम को लौटा दे। विषयों में आसक्ति होने से तेरा यश - तेज धूमिल हो रहा है और शत्रु मिलकर तेरा अनिष्ट करना चाहते हैं । तु परंतप महिदेव है , पर मैं लंका में भावी अनिष्ट के लक्षण देखकर ही तेरे पास आया हूं । " वृद्ध मातामह के ये वचन सुन रावण ने गुस्से से भौंहें चढ़ा तथा आंखें निकालकर कहा - “ मातामह, आपने व्यर्थ ही यहां आने का कष्ट किया , आपने शत्रु का समर्थन करते हुए जो - जो मेरे लिए अहितकर - अप्रिय शब्द कहे हैं , वे मेरे कानों ने सुने ही नहीं। है कौन यह कृपण राम! पिता के द्वारा निष्कासित , वन - वन भटकने वाला ? कौन उसे समर्थ कहता है ? एक वानरों का जो उसे सहारा मिल गया है, क्या इसी से ? मैं सम्पूर्ण पृथ्वी का विजेता , राक्षसों का स्वामी , महिदेव , सम्पूर्ण शक्तियों से सम्पन्न हूं । देव - दैत्य सभी मुझसे भय खाते हैं , तो इस क्षुद्र मानव की मुझसे क्या समता है ? आपके वचनों से तो ऐसा प्रतीत होता है कि आप भी दुरात्मा विभीषण की भांति उस भिखारी राम से मिल गए हैं । मेरा प्रताप और यश आपको सह्य नहीं है, तभी तो आप मुझे हतोत्साह करके युद्धविरत किया चाहते हैं । पर नीतिशास्त्रवेत्ता कोई भी विज्ञ सिंहासनस्थ पुरुष को प्रोत्साहन की बजाय ऐसे अप्रिय वचन नहीं कहता । मैंने अपने पराक्रम से उस शत्रु की पत्नी का धर्म से हरण किया है। अब क्या मैं उस विपन्न राम से डरकर उसे छोड़ दूं? यही आप मुझसे कहने आए हैं ! परन्तु मैंने किसी के समक्ष झुकना सीखा ही नहीं, ऐसा मेरा स्वभाव है । अत : भले ही मेरे शरीर के दो खण्ड हो जाएं , मैं अपने निश्चय से नहीं हट सकता । राम ने जो संयोगवश हमारी उपेक्षा और असावधानी का लाभ उठाकर समुद्र पर पुल बांध लिया , इसी से आप इतने भयभीत हो गए ? पर मैं महिदेव पौलस्त्य रावण आज प्रतिज्ञा करता हूं कि राम समुद्र -पार आकर जीता नहीं लौटेगा । आप देखते रहिए, कुछ ही दिनों में मैं लाखों वानरों से रक्षित राम को लक्ष्मण