ध्यान किया । फिर उन्होंने मन्द स्वर में कहा - “ देखो लक्ष्मण, बड़ी - बड़ी अट्टालिकाओं और गमनचुम्बी हर्यों के स्वर्ण- कलश इस अस्तंगत सूर्य की रक्तिम धूप में कैसे चमक रहे हैं । बीच में अनेक विशाल वाटिकाएं भी बहुत हैं , जिनमें चम्पा , अशोक , मौलसिरी , साख , तमाल, ताड़ , कटहल , नागकेसर, हिंताल, अर्जुन , कदम्ब , तिलक, कर्णिकार आदि के पुष्पित वृक्ष , लताओं से आच्छादित अपनी मनोहरता से इन्द्रपुरी अमरावती की शोभा को भी लज्जित कर रहे हैं । कुबेर का रथ और इन्द्र का नन्दन वन भी उद्यानों की समता नहीं कर सकता। पपीहा , कोयल आदि इन उद्यानों को मुखरित कर रहे हैं । नगर - द्वार श्वेतवर्ण मेघों के समान दीख रहे हैं तथा राज - भवन और देव - मन्दिरों के भव्य गुम्बज अपनी शोभा की समता नहीं रखते । ” विभीषण ने कहा - “ वह सहस्र खम्भोंवाला रावण का सभाभवन है, जो अपनी ऊंचाई के कारण कैलास - सा दीख पड़ रहा है। सहस्र महाबली राक्षस इस सभाभवन की रात-दिन रखवाली करते हैं । यह दैत्यों और राक्षसों की स्वर्णमयी लंका नाना वैभवों से परिपूर्ण है । धन - धान्य , स्वर्ण- रत्न , सुरा - सुन्दरी, आनन्द-विलास ऐसा पृथ्वी पर और कहीं नहीं है। " __ अकस्मात् उसकी दृष्टि रावण पर पड़ी , जो स्वर्ण-कंगूरों पर चढ़कर राम - सैन्य का निरीक्षण कर रहा था । उसने रावण की ओर इंगित करके कहा- “ यही दुर्जय रावण है,जिसके दोनों ओर चंवर डुलाए जा रहे हैं , जिसके सिर पर विजय - छत्र सुशोभित है । शरीर पर रक्तचन्दन का लेप है, जो स्वर्णतार - खचित वस्त्र ओढ़े जलद के समान दीख रहा है । " विभीषण के ये वचन सुन सुग्रीव आदि वानर-नायक कौतूहल से राक्षसपति को देखने लगे । राम ने कहा - “ वीरो , शीघ्र ही यह रावण द्वारा पालित , दुर्लंघ्य लंकापुरी राक्षसों के रुधिर से लाल हो जाएगी । आओ, हम उपयुक्त स्थल पर चलकर सेना को व्यूह -बद्ध करें । " इतना कहकर श्री राम सब सेनापतियों और यूथपतियों सहित शीघ्रता के साथ अपने कटक की ओर लौट पड़े ।
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