107. जगदीश्वर का वैकल्य पृथ्वी पर अतुलनीय, स्फटिकग्रथित , रत्नजटित सभा में , जहां रंग -बिरंगे रत्न स्तम्भों पर सुनहरी छत - जैसे फणीन्द्र के असंख्य फणों पर भूभार। मोती , पन्ना और हीरक की झिलमिल झालरों के चंदोवों के नीचे हेमकूट पर शृंग - समान कान्तिमन्त महिदेव रावण स्वर्ण-सिंहासन पर बैठा । चारों ओर बन्धु -मन्त्री, सेनापति , सभासद्। बन्दनवारों में गुंथे ताजे पुष्प , पल्लव , चम्पा , चमेली , मौलश्री, जहां की दीप्ति नयनों मैं चकाचौंध करती थी । चारुलोचना किंकरी भुज मृणाल से चंवर हिलाती - डुलाती । छत्रधर छत्र लिए सन्नद्ध काम रूप , अनुरूप , मनहर - शूलपाणि के अनुरूप शूल - हस्त द्वारपाल द्वार पर सन्नद्ध। शीतल , मन्द, सुगन्ध , कोमल सामुद्र समीर विहंगों के कूजित कलरव को वहन करती , प्राणों को तृप्त करती प्रवाहित । जगज्जयी महिदेव लंकापति अधोमुख, भग्नमन , शोकसंतप्त , मूक - मौन ! अजस्र अश्रुधारा से बुझे हुए। ज्योतिज्वाल नयनों के ज्वलन्त अग्नि - स्फुलिंग शरविद्ध मेघ से झर झर झरती जलबिन्दु धार - सी अश्रुधार। । भूलुण्ठित समरदूत , रक्तप्लुत । क्षत -विक्षत , भग्नप्राण , हतजीवन , हतौज, स्खलित वचन , गद्द- वाक्य , जड़ - कम्पित , दीन पंकलिप्त । ___ “ कह रे कह, वीरपुंगव कुम्भकर्ण के निधन का समाचार कह! " “ महाराज, राक्षसों में श्रेष्ठ कुम्भकर्ण के साथ सहस्रों योद्धा आज समर - सागर में विलीन हो गए। उस सर्वग्रासी कालरूप राम ने सबको ग्रस लिया । “ तो महातेज मृत्युंजय कुम्भकर्ण अब पृथ्वी पर नहीं रहे ? अरे , जिसके भुजबल से देवता और दैत्य भी संतापित रहते थो , उसे उस भिखारी राम ने सम्मुख समर में मार डाला ? तेरी यह बात तो स्वप्नवत् है। भाग्य ने शाल को फूल की पंखुड़ी से काट डाला । हा वीर- चूड़ामणि , हा भाई कुम्भकर्ण, किस पाप के फलस्वरूप आज मैंने तुझे खो दिया ? अरे मेरा दक्षिण बाहु ही टूट गया । कैसे मैं यह शोक सहन करूंगा? यह दुरन्त शत्रु तो इस प्रकार प्रतापी रक्षकुल का नाश कर रहा है, जैसे लकड़हारा एक - एक शाखा को काटकर सारे वृक्ष को समूल ही नष्ट कर रहा हो । हाय , अब कौन मेरे विपुल कुल को बचाएगा ? अरे सर्वजित् , अमित -विक्रम, राक्षस -कुल- रक्षक कुम्भकर्ण क्या सचमुच ही काल - कवलित हो गए ? यह तो अनहोनी - सी बात है । अरी अभागिनी सूर्पनखा, किस कुक्षण में तूने पंचवटी में इस काल सर्प को छेड़ा था । अरी, मैं तो तेरे ही दु: ख से संतप्त हो इस दाहक अग्नि -शिखा, जान की गाहक को हेम गृह में लाया था । हाय-हाय कुसुम - गुम्फिता, दीपावलि - उज्ज्वलिता मेरी यह अद्वितीय स्वर्णलंका तो जैसे श्मशान हो गई, सुनसान हो गई । अब वीरों की वाहिनी यहां कहां चलती हैं । अरे , कोकिलकण्ठी रक्षकिशोरियां वीणा, मुज, मुरली बजाकर लंका के रमणीय उद्यानों में नृत्य क्यों नहीं करतीं ? लंका की वधुएं मधुर गान के स्थान पर रुदन
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